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________________ ४] पतितोद्धारक जैनधर्म । SIngennis is Insu वैसे ही जीवका अपना- आत्मस्वभाव उसका धर्म है । और वह स्वभाव सुख, ज्ञान तथा वीर्यरूप है, यह हम ऊपर लिख चुके है। जैनाचयाने अनेक शास्त्रोंमें जीवके इस स्वाभाविक धर्मका निरूपण बड़े अच्छे ढंगसे किया है। नये और पुराने सबही समयके जैनाचार्य इस निखर सत्यका निरूपण करते है । देखिये कहा गया है | गाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उबओगो य, एयं जीवस्त लक्खणं ॥ ११-२८-३० ॥ अर्थात- 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, वीर्य और उपयोग यही जीवके लक्षण है ।' एक अन्य जैनाचार्य इसी बात को और भी स्पष्ट करते हुये कहते है: 'ज्ञानदर्शनसम्पन्न आत्मा चैको ध्रुवो मम । शेषा भावाव मे बाह्या सर्वे संयोगलक्षणाः || २४|| सारसमुच्चय अर्थात्- 'मेरा आत्मा एक अविनाशी, ज्ञान-दर्शन से पूर्ण द्रव्य है - अन्य सर्व रागादि भाव मेरे से बाहर है और जड़के संयोगसे होनेवाले हैं।' इस प्रकार धर्मकी व्याख्याका अनेक जैन ग्रन्थोंमें सारगर्भित विवेचन है । बहार धर्म निखर सत्य-जीवका अपना स्वभाव ही घोषित किया गया है । व्यवहारिक रूपमें वे सब साधन भी जो जीवको अपना निश्चयधर्म प्राप्त करने में सहायक हों 'धर्म' के अन्तर्गत गृहण कर लिये गये है ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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