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________________ RUNNIAL Nimesunneylarusummer कीड़ा हो और चाहे श्रेष्ठ नर, दोनोंका पुरुषार्थ एक ही उद्देश्यको लिये हुये है। ज्ञान और शक्तिकी हीनाधिकता उनके उद्देश्यमें कुछ भी मन्तर नहीं डालती ! प्रत्येक अपनी परिस्थितिके अनुकूल 'सुख' पाने के लिये उद्यमी है। अत प्राणियोंकी इस साहजिक क्रियाके आधारसे हमें उसके स्वभाव, उसके धर्मका ठीक परिचय मिल जाता है। प्रत्येक जीव-प्राणीका स्वभाव-उसका धर्म मुख तथा ज्ञान और शक्तिरूप है। इसलिये प्रत्येक वह नियम-मनुस्यका मोकबह कार्य नो प्राणीके लिये सुख, ज्ञान और शक्तिको प्रदान करे, 'धर्म' के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जासकता। ___ आज संसारमें ऐसे नियम और किन्हीं खास मनुष्यों के, जिनको संसारने महापुरुष माना है, महत् कार्योको ही पन्थ और सम्प्रदायके रूपमें 'धर्म' कहा जाता है। किन्तु वे पन्ध और सम्प्रदाय तथा उनके नियम तब ही तक और वहीं तक 'धर्म' कहे जासकते हैं जबतक और जहातक वे जीवके स्वभाव-सुख, ज्ञान और वीर्यके अनुकूल हों और उन्हें प्रत्येक जीवको उपभोग करने देने में बाधीनता प्रदान करते हों । इसके प्रतिकूल होनेपर उन्हें 'धर्म' मानना 'धर्म' का गला घौटना है। जैनाचार्योंने 'धर्म' की व्याख्या ठीक वैज्ञानिक-प्राकृत रूपमें की है । वे कहते हैं कि ' वस्तुका जैन धर्म। स्वभाव धर्म है ।' जिसप्रकार सूर्यका स्वभाव प्रकाश, जलका स्वभाव शीतलता और अमिका स्वभाव उष्णता उन प्रत्येकका अपना-अपना धर्म है, ठीक
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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