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________________ INSIBLISHIBIHIBIDIOMUNIORAININGINNRBIRHOIRAUDIOHUAO neISHINAR कबीर । उनने हंसते२ कबीरको आशीर्वाद दिया। उस दिनसे लोग कबीरकी एक भक्तवत्सल जीव समझने लगे। कबीरके हृदयमें अमित दया थी । एक रोज यह कपड़ेका थान लेकर बाजारमें बेचने गये। रास्ते में एक गरीबने उनसे वह कपड़ा मांगा । जाड़ेके दिन थे, वह बेचारा ठिठर रहा था । कबीरका दिल उसकी पीड़ा न देख सका । उसको पूरा थान देदिया । वह गरीब खुशी खुशी चला गया । कबीर सोचने लगे कि अब मांको क्या दूंगा ? वह मेरी प्रतीक्षामें होगी ? पैसे न होंगे तो माज अन्न कहांसे आयगा ? दूसरे क्षण उनके मनने कहा कि मन आये चाहे न आये परन्तु गरीबका दुख निवारनेसे जो मानंद मिला वह अपूर्व है । कबीरका हृदय आनंद विभोर हो थिरकने लगा। पुण्यकर्म अपना फल दिये बिना नहीं रहता । कहते भी हैं, इस हाथ दे उस हाथ ले। कबीरकी परोपकार वृत्ति एक महात्माको ज्ञात हुई और उन्होंने उनका अन्न संकट भी जाना । झटसे मनों भन्न उनके घर भेज दिया । कबीरने घर पहुंचकर जब वह देखा तो उसे देवी परिणाम जानकर खूब दान पुण्य किया। सारे बनारसमें उसका नाम होगया। बनारसके राजाने भी उनका आवरसत्कार किया। कबीर दान देते, राम मजन करते और नीर्थ-यात्राको जाते हुये अपना जीवन विताने को। ऐसा झला जीवन बिताते हुए भी उनके दुश्मन मंद और मुसलमान होनों ही थे। बोनीके सिर, उससमय दिल्लीके बादशाह सिकन्दर लोदी अपना लाम-जाकर लिये
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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