SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AMBIHSIOSRDIDIDImm itsummissionestations २००] पतितोदारक जैनधर्म । आश्चर्य तथा संताप व बीके माता - पिताको हुआ। एक मुसलमानके घरमें 'राम-राम' का जाप किया जाय, यह कैसे वह सहन करते ? मताध लोग नाम और भेषमें ही अटके रहते हैं; किन्तु मत्यके पोषक नामरूपको न देखका तत्वको देखते हैं । राम कहो चाहे रहीम, मुख्य बात जाननेकी यह है कि आराध्यदेवमें देवत्वके गुण हैं या नहीं ! मुख्यतः देवका पूर्ण ज्ञानी, हितोपदेशी और निर्दोष होना आवश्यक है। ऐसे देवको चाहे जिस नामसे जपिये, कुछ भी हानि नहीं है । व बीरको संभवतः यह सत्य सूझ पड़ा था। इसीलिये उन्हें 'राम' नाम जपने में भी संकोच नहीं था। किन्तु मताध दुनियाको यह बुरा लगा। एक म्लेच्छका गुरु और ब्राह्मणोका गुरु एक कैसे हो । बनारसमें तहलका मच गया। रामानंदने भी यह सुना । उन्हें बड़ा क्रोध आया। झटसे कबीर उनके सामने पकड़ बुलाये गये । रामानंदने पूछा- कबीर ! मैंने तुझे कब शिष्य बनाया, जो तू मुझे अपना गुरु बताता है ? कबीरने उम रातवाली बात बतादी, किन्तु रामानन्दका वर्णाश्रमी हृदय एक म्लेच्छको-मुसलमानको शिष्य मानने के लिये तैयार न था । यह देखकर कबीरमे न रहा गया । उसने कहा " जातिपांति कुल कापरा, यह शोभा दिन चारि । कहे कबीर सुनहु रामानन्द, येहु रहे शकमारि ॥ जाति हमारी बानिया, कुल करता उरमांहि । कुटुम्ब हमारे सन्त हो, मूरख समझत नांहि ॥" कबीरकी ज्ञान बातें सुनकर रामानंद क्रोष करना भूल गये ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy