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________________ .UnananRIDUDDIRanautam B IDIDAIBIDIGITADIURDURIHIROINSION १८४] पतितोद्धारक जैनधर्म [२] वेमना। “चित्त शुद्धि गलिग चेसिन पुण्यवु कोंचमैन नदियु कोयवु गादु वित्तनंबु भरि वृक्ष नकुनेंत विश्व · · मा !" एक नंगा साधु गोदावरी तटपर उक्त काव्यका उच्चारण मधुर कंठध्वनिसे करता हुआ विचर रहा था,। जैसा ही उसका मधुर कंठरव था उससे अधिक मधुर और मूल्यमयी काव्यका भाव था। सच है, उसे कौन नहीं मानगा कि “चित्त शुद्धिसे जो पुण्य प्राप्त होता है, थोडा होनेपर भी उसका फल बहुत है; जैसे वटवृक्ष के बीज !' देखने में तो वह जसे होते है, परन्तु उनसे वृक्ष कितना विशाल उपजता है। उस बीन की तरह ही तो चित्त शुद्धि धर्मक्षेत्रमें मोक्षप्राप्तिका मूल बीज है। एक दिगम्बर जैनाचार्यने इस चित्तशुद्धिको ही मोक्षप्राप्तिका मूल उपाय बताया है। वह कहते है कि:-- "जहिं भावइ तहिं जाहि जिय, जं भावइ करि तंज केम्बइ मोक्खु ण अत्थि पर, चित्तहं मुदि ण जंजि !" मनमें आवे वहां जाइये और दिल आये वह कीजिये; पर याद रखिये कि मोक्ष तबतक नहीं मिल सक्ता जबतक चित्तकी शुद्धि न हो। वस्तुतः चित्तशुद्धि ही धर्म-मार्गमें मुख्य पथ प्रदर्शक है।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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