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________________ DUBBIDIOINIUSushant.anal uture.laneuantuaashanaugurane १७८ ) पतितोद्धारक जनधर्म। ही प्रवजित हारहे है तो मैं क्यों न दीक्षा ल ?' यह सोचकर उपाली उनके पास लौट गए। कुमारोंने पूछ .-- ___उणली ! किम लिये लौट आये ?' उ०- आर्य पुत्रो ! लौटने ममय मुझ शाक्योंकी चंडताका ध्यान आया, मो धनका मोह छोडकर मैं म० बुद्धमे प्रवा लेने आया हूं।' कु०-' उपाली ' अच्छा किया, जो लौट आये ।' इसके बाद वे शाक्यकुमार उ ली को लेकर गौतमबुद्ध के पास पहुच कर बोले- मन्ने । हम दाक्य अभिमानी होते है। यह उपाली नाई है, चिकाल तक हमाग विक रहा है। आप इसे पहिले प्रत्रजित करायें, जिसमे कि हम इसक अभाद करें और अपने कुल अभिमानको हम मदित कर सकें। 'तथास्तु' कह का गौ मन पहले उपली ही को बौद्ध भिक्षु बनाया । भिक्षु शेन के उपरान्त उगली बौद्ध सिद्धातक अध्ययन ओर चारित्रको पालन कर मे दत्तचि 1 14 | थोड़े ही ममयमें व संघ अग्रणी गिना जान लगा। बौद्ध महाश्रावकों (भिक्षुओं) मे उनको दशवा स्थान प्राप्त हुभा । स्वयं गौतम बुद्ध न उनके गुणोंकी प्रशंसा की। जब वह गृद्धकूट पर्वत ये तब एक रोज भिक्षुओंमे बोले " देख रहे हो तुम भि अं : लिको, बदतमे भिक्षुओंके सथ टहलने ? " "हाँ : " भिक्षु भो' यह भी भिज्ञ हैं। 7 ली वियव है।"
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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