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________________ चिळाति कुमार। BUDHRUMUDHINIMUMinuu uN HuintHRUT विपुलाचल पर्वतपर जैन ऋषियोंका आश्रम था। वहापर जैन मुनिगण निरंतर तप तपा करते थे । संसारमें अपनेको अशरण जानकर चिलाति उन निम्रन्थ गुरुओंकी शरणमें पहुंचा। उसने आचार्य महाराजसे दीक्षाकी याचना की। गुरु महाराजने उसे निकट भन्य जानकर दीक्षा प्रदान की। चिलातिकुमारका हृदय वैराग्यके गाढ़े रंगसे सराबोर था । अब उन्हें इन्द्रियोंके भोग काले नागमे दिखते थे। उन्होंने खुब तप तपा और जिनवाणीका विशेष अध्ययन करके ज्ञानोपार्जन किया । गुरुमहाराजके साथ यत्र-तत्र विहार करके उन्होंने अनेक जीवोंको सुखी जीवन बिताना सिखाया। भूले भटकोंको रास्ता लगाया, और अनगिनती लोगोंका उद्धार किया । अब वह ' योगीराट् ' कहकर पूजे जाने लगे। यह कोई नहीं कहता था कि यह भीलनीके जाये है. पापी हैं, राजभ्रष्ट हैं। मो भी उनके दर्शन करता उनके गुणोंपर मुग्ध होजाता ! इस प्रकार एक दीर्घ समय तक मुनिराज चिलातीने. अपना और पराया हित साधन किया। अन्तमें समाधिका आश्रय लेकर इस नश्वर शरीरको छोड़कर सद्गतिको प्राप्त किया ! धन्य है वे ! उन्होंने धर्मके प्रकाश द्वारा अपनेको उज्ज्वल और अमर बना लिया ! और साथ ही कुल जातिकी विशिष्टताकी निस्सारता प्रमाणित कर दी! NOM
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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