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________________ -IMPOUNDut. . n .00AMROHORIGImhinRUDRIEDOUBLIBHIII.HD.VII. १९६] पतितोद्धारक जैनधर्म । इनका बड़ा कडुवा होता है । राजन् ! साधुओंने भोग उन्हींको कहा है जो स्व और पर दोनोंको महा संताप देनेवाले हैं।' गनीके ये वचन सुनकर मधु भयभीत हो कांपने लगा। कुछ विचारकर वह बोला-प्रिये ! इस समय तुमने मुझे डूबनेसे बचा लिया । विषयभोग सचमुच दुःखोंके आगार हैं। कामकी तीव्र वासनाको जीतना ही श्रेय है । मैं अब तप धारण करके इस दुष्ट वासनाका नाश करूँगा !' चंद्रामा मधुके इस पुण्यमई निश्चयको सुनकर हर्षसे गद्गद हो उनके गलेमे लिपट गई और बोली-'नाथ, तुमने खूब बिचारा ! तुम्हारा कायापलट हुआ जानकर मैं प्रसन्न हूं ! चलो, हम दोनों अपने कृत पापोंका प्रायश्चित्त करें।' गजा मधु-पतित पावन प्रभू मैं महान पापी हूं, पराई स्त्रीको घरमें डालनेका घोरतम पाप मैं संचय कर चुका हं ! नाथ! कोई उपाय है जो मैं इस पापसे छूटू ?" । _आचार्य विमलवाहन अयोध्याके सहस्राम्रवनमें विराजित थे । राजा मधुने चन्द्रामा सहित जाकर उनके चरणोंमें अपने पापका प्रायश्चित्त करना चाहा ! विमलवाहन महारानने उत्तर दिया: __ 'गजन् ! संसारमें ऐसा कोई पाप नहीं है जिससे मनुष्य छूट न सक्ता हो। अंधेरी रातके साथ उजाली रात और रातके साथ दिन लगा हुआ है । पाप अंधकार है, पुण्य प्रकाश है। पापसाम्राज्य शरीरके आश्रय है और पुण्य-प्रकाशका पवित्रस्थक आत्मभागार
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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