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________________ IPINISISTIHOTIONani.muuuu uu u nmun.MAMISHAIL राजर्षि मधु। [१५५ गया । मधुसे उसने कहा-'कृपानाथ ! देखिये वह मेरा पति मेरे प्रेममें मत्त हुआ कैसा धूम रहा है ?' मधुने चन्द्राभाकी यह बात सुनी अनसुनी करदी अवश्य; परन्तु वीरसेनके करुण रूपने मधुके दिलको ठेस पहुंचाई। वह उस चोटको भूलनेके लिए उठकर राजदरबारमें चला गया। रानी चंद्राभा भी उसके पीछे पीछे चली और राजदरबारके. झरोखेमें जा बैठी। गजा मधुके सामने एक अपराधी उपस्थित किया गया । कोतवालने कहा-'महाराज ! इसने परस्त्रीके साथ व्यभिचार किया है । इसे क्या दंड मिलना चाहिये ?' राजा बोले-'परस्त्रीको ग्रहण करना महा पाप है । इसलिये इसके हाथ पैर काटकर शिरोच्छेदनका दंड इसे मिलना चाहिये।' ___कोतवाल-'तथास्तु' कहकर अपराधीको लेजाने लगा। उसी समय राजाने सुना- जरा दर्पणमें मुंह देखिये !' इन शब्दोंने रामाको काठ मार दिया। दरबार बरखास्त हुआ। राजा उठे और सीधे राममहलको चले गये । जाते ही चंद्रामासे बोले-'प्रिये ! तुम मेरा सच्चा हित साधनेवाली हो । मैं स्वयं महा पापी ई, मैं न्याय करने-दंड देनेका अधिकारी नहीं हूं।' चंद्रामा प्रेमसे बोली-'नाथ ! यह मोग मनुष्यको अंधा बना देते हैं । असार भोगनेमें यह भोग मीठे उगते हैं, परन्तु परिणाम
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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