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________________ १४...] पतितोद्धारक जैतवर्म । विवाह हुआ। वह वैवाहिक जीवनका आनन्द लुटनेमें व्यस्त था। श्रीकृष्णके चचेरे भाई भगवान् अरिष्टनेमि थे। जरासिंधुसे जब यादवोंका युद्ध हुआ था तब कृष्णके साथ अरिष्टनेमिने भी अपना भुजविक्रम दिखाया था । जरासिंधुकी पराजय और यादवोंकी विजय हुई थी। श्रीकृष्ण अरिष्टनेमिके बलके कायल होगये थे। उन्होंने अरिष्टनेमिका विवाह कुमारी राजमतीसे निश्चित किया। बारात चढ़ी, मरिष्टनेमि दूल्हा बने, परन्तु उन्होंने ब्याह नहीं किया। मार्गमे पशुओंको घिरा देखकर उन्हें उनपर दया आगई, पशुओं को उन्होंने छुड़ा दिया। साथ ही इस घटनासे वे संवेगको प्राप्त हुये। संसार भी तो बंदीगृह है, कोई क्यों बंधनमें रहे। अरिष्टनेभिने आत्मस्वातंत्र्य पानेके लिये बनका रास्ता लिया, वे महान योगी हुये। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनकर उन्होंने लोककल्याणके लिए सारे देशमे घूमधूमकर मुमुक्षुमोंको सत्यका स्वरूप मुझाना प्रारम्भ कर दिया। विहार करते हुये भ० अरिष्नेमि द्वारिकामें आये । श्रीकृष्ण तथा अन्य यादवगण उनकी वन्दनाको गये। थावच्चापुत्र भी गया। उसने भगवान के मुखारविंदसे धर्मोपदेश सुना। शगैरवन्धनमें पडा रहना उसे असह्य होगया। मातासे उसने विदा ली, पत्नीको सान्त्वना दी और सबकी अनुमति पाकर थावच्चपुत्र साधु होगया । __ मा बोली-'बेटा, इस मार्गमें सदा यत्न करना, पराक्रम दिखाना, कभी प्रमादमें न फंसना !' यावयापुत्रने माताके इन वचनोंको सार्थक कर दिखाया। वह एक सच्चे साधुके समान सावधानी और साहससे धर्ममार्गका
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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