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________________ ऋषि शैलक ! SHOHGUR भगवान मुस्कराये - ' सेठ ! तुम अब पापी नहीं हो । पापसे तुम भयभीत हो । तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है । तुमने तो मृतमास ही खाया है; परन्तु धर्मकी शरणमें आकर नर-हत्यारे भी कृतकृत्य होगये हैं । चाहिये एक मात्र हृदयकी शुद्धि ।' Sans [ २४३ 1 सेठ - 'नाथ ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अक्षरशः करूंगा ।" भं० महावीरके निकट सेठ धनवाह दीक्षा लेकर साधु होगये साधु होकर उन्होंने खूब तप तपग, संयम पाला, जीव मात्रका उपकार किया और ग्यारह अंगका ज्ञान उपार्जन किया । समाचारको पालकर वह भी स्वर्गगतिको प्राप्त हुये । ? } ऋषि शैलक !* (१) इन्द्रकी अमरावती जैसी द्वारिका नगरी सौराष्ट्रदेशकी राजधानी थी। वहां वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण राज्य करते थे । वैत व्यगिरी तक समूचे दक्षिणार्ध भरतपर उनका अधिकार था, वह आनन्द मे सुखपूर्वक राज्य कर रहे थे । उस समय द्वारिक में थावचा नामक एक समृद्ध और बुद्धिशाली सेठानी रहती थी । थावच्चापुत्र उसका इकलौता बेटा था । थावाने उसे लाचावसे पाला पोषा और पढ़ाया लिखाया था । पढ़ लिखकर जब थावचा पुत्र एक तेजस्वी युवक हुआ तब उसका 'धर्म मो' पृ० ४७ के मनु |. |
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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