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________________ H um. uanian १२० पतितोदारक जैनधर्म । वह बेलाग था। कुमाग्ने फि' पूंछ: महाराज ' मैंने ऐसा क्या किया जो इस जन्ममें मुझे ५ पी होना पड़ा ?' ___उत्तरमे आचर्य बोले.. वत्स, तुम भूलते हो, तुम इस जन्ममें पापी नहीं हो । जानने हो, पाप करने वाला पापी कहलाता है। पापका फल भोगनेवाला पापी नहीं कहलाता । कष्ट और आपत्तियां पापके ही फल है और ये सच्चेसे सच्चे महात्माके ऊपर भी आती है। क्या इसलिये वे पापी कहलाने हे ? यदि तुम्हारा जन्म तुम्हारे लिए कष्टप्रद हुआ तो वह पापका फल महा नायगा, पाप नहीं। फिर तुम पापी कैमे " कुरके नेत्र यह सुनकर मजल डोगए। उनने प्रार्थना कीगुरुवर्य ' मै मत्गुरुकी खोज में था। सौभाग्यमे आपमे आज वे मुझे मिल गये । अब मैं मोक्षमार्गमें चलना चाहता हूं। आप मुझे साधु-दीआ देकर कृतार्थ कीजिए ।' गुरुवर्य कुछ चिन्तामें पड़े । फिर बोले- तुम दीक्षाके योग्य हो, वत्म ! इसमें कुछ सन्देह नहीं, परन्तु यह ख्याल रक्खो कि अपने जीवनको दूसरोंके मिरका बोझ बना देने से कोई साधु नहीं बनता। साधु, आत्मोद्धार और परोपकारकी अप्रतिम मूर्ति होता है।' __ कुमार - 'गुरुवर्य ! आप जो आजा करेंगे उसका मैं तन और वचनसे ही नहीं, मनसे भी पालन करूंगा!' ___गुरुवर्यने तथास्तु' कहकर कुमारकी इच्छा पूर्ण की । कुमास्ने उनके चरणोंमें नमस्कार किया। ऐसा नमस्कार करनेका कुमारके जीवनमें यह पहला ही अवसर था। अब वह कुमारसे
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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