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________________ मुनि कार्तिकेय -Si-airlines [ ११९ करना पाप है, परन्तु ऐसे सम्बन्धमें पैदा होनेवाला पापी नहीं है । धर्म तो मनुष्य मात्रका ही नहीं प्राणी मात्रका है।' कुमार - 'धर्म में क्या पात्र अपात्रका विचार नहीं किया जाता ?" आचार्य - ' किया जाता है, कीड़े मकोड़े आदि तुच्छ प्राणी धर्म नहीं धारण कर सकते, इसलिये अपात्र हैं । परन्तु पशुपक्षी और मनुष्य - स्त्री-पुरुष, ऊच-नीच, सङ्कर अमङ्कर सभी धर्म धारण करने के लिए पात्र है। समझदार प्राणियों में वे ही अपात्र है जो धर्मके मार्ग में स्वयं चलना नहीं चाहने या अपनी शक्ति लगाना नहीं चाहते।' , कु० -- 'क्या दुराचारी अपात्र नहीं है ?' .. आ०-- ' दुराचारी तभीतक अपात्र है जबतक वह दुराचार में लीन हैं । दुराचारका त्याग करनेवाला व्यक्ति या दुराचारसे पैदा होनेवाला व्यक्ति अपात्र नहीं है।' कु० - 'क्या ऐसे लोगों के पास धर्मके चले जाने से धर्मकी हंसी न होगी ?" आ० - 'यदि नीचसे नीच व्यक्तिके ऊपर सूर्यकी किरणें पड़नेपर भी सूर्यकी हंसी नहीं होती तो महासूर्य के समान धर्मकी हंसी क्यों होगी ?' कुमार मन ही मन प्रसन्न हुये। जिस रत्नकी खोज में वे आज: तक फिर रहे थे वह उन्हें मिल गया। माता के अवसान के बाद उन्हें सैकडों साधुवेषी मिले थे, परन्तु आज उन्हें एक सच्चा साधु मिला । वह सत्यका पुजारी था, संसारका हितेच्छु था, पर उसका गुलाम न था । उसे सत्य प्रिय था। लोगों के बकवादका उसे जरा भय न था ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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