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________________ छठा जन्म १०३ शरीर पर भस्म लगा कर अपने को तपस्वी घोषित करना, नाना प्रकार के विवेकहीन काय-क्लेश सहन करना, आध्यात्मिक दृष्टि के बिना हिवि से लंघन करना आदि मूढ़ता है। सम्यग्दृष्टि जीव मे दृष्टि की निर्मलता का इतना विकास हो जाता है, कि वह मूढ़ताओं का शिकार कदापि नही होता । वह देव आदि के स्वरूप पर गहरा विचार करता है और तब श्रद्धा या आचरण करता है । वह जानता है, कि पदार्थ के सच्चे स्वरूप को पहचानने मे तथा उसके परिक्षण मे कदापि हिचकिचाना नही चाहिए। जो किसी ने कह दिया, सो ठीक है, ऐसी कल्पना करते हुए 'बाबा वाक्यं प्रमाणम' के अनुसार सत्य नही मान लेना चाहिए। धर्म के विषय मे खूब सतर्क, सावधान, मननशील और परीक्षा परायण होना चाहिए । इसी से सम्यक्त्व स्थिर रहता, भूषित होता और वद्धिगत होता है । इस प्रकार लोक-मूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता, देव मृढ़ता आदि से रहित विवेकपूर्ण श्रद्धा रखना ही अमूढदृष्टि अंग है। अमूढष्टि अंग मे रेवती रानी का उदाहरण प्रसिद्ध है। चन्द्रप्रभा नामक एक विद्याधर ने त्रिगुप्ताचार्य से गहस्थ धर्म धारण किया था। इस विद्याधर की प्रकृति ऐसी थी, कि वह सामान्य या असामान्य किसी बात को भी बिना सोचे-विचारे स्वीकार न करता था। एक बार वह मथुरा जा रहा था। उसने गुरु महाराज से पूछा-'महाराज मै मथुरा जा रहा हूँ । वहा के योग्य कोई सेवा हो तो आज्ञा दीजिए।' __मुनिराज-सुव्रत नामक अनगार वहा पर है। मेरी ओर से उन्हे सुख-साता पूछना और रेवती रानी को धर्म-वृद्धि कह देना।' विद्याधर ने सोचा-देखो. मथुरा मे भन्यसेन नामक मुनि
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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