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________________ १०२ पाश्वनाथ नन्दिपेण-'महाराज | कृपा कर मेरे कंधे पर विराजमानसवार हो जाइए।' देवमुनि श्री नन्दिषण के कंधे पर सवार हो गया । उसने अपनी विक्रिया के द्वारा मुनि पर के, दस्त करना आरंभ कर दिया। मुनिराज का समग्र शरीर के दस्त से लथपथ हो गया। फिर भी नन्दिपेण मुनि के ललाट पर सिकुड़न तक न आई। उनका मन तनिक भी मलिन न हुआ । घणा उनके पास भी न फटक पाई। वे अपने सेवाभाव से रंचमात्र भी विचलित न हुए। उन्होंने अनेक प्रकार के कष्ट झेल कर भी मुनिवेपी देव के उपचार से मुंह न मोडा। श्री नन्दिपेण मुनि का आदर्श युग-युग मे अमर रहेगा। आधुनिक काल मे जगह-जगह पर औपवालय और चिकित्सालय स्थापित किये जाते है । पर वहाँ इस प्रकार के आदर्श सेवाभाव की कमी इष्टिगोचर होती है । इन चिकित्सा गहो मे यदि उपचार के साथ-साथ सेवा के प्रति इतना उत्कृष्ट अनराग उत्पन्न हो जाय, तो सोने में सुगंध की कहावत चरितार्थ होने लगे। अस्तु । प्रयोजन यह है कि मलिन तन श्रादि देख कर घणाभाव न उत्पन्न हो और रणों की ओर दृष्टि प्राकृष्ट हो जाय । यही सम्यक्त्व का निर्विचिकित्सा अग है। सम्यक्त्व को भपित करने वाला चौथा अंग है, असवष्टि । देव, गर और धर्म के यथार्थ स्वरूप को न पहचानना मृड़ता है। सच्चे देव को कुदेव और कुडेव को मचा देव मान लेना, वास्तविक गुरु यो कुगर और कुगल को वास्तविक गम स्वीकार करना, सुधर्म को कुधर्म और धर्म को सुधम समझ बैठना, यह मृढता पायर है । पचाग्नि नप तरना जल में समाधि लगाना,
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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