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________________ चौथा जन्म १५ और अपने प्रिय बालक के जीवन को कदापि मिट्टी मे नही मिलाती । बालक करणवेग के लिए नियुक्त धायें सदैव इस बात का ध्यान रखती थी और किसी भी हानिजनक वस्तु का सेवन न कराती थी। ___ वालक करणवेग साढ़े सात वर्ष का हो गया तो महाराज विद्य तवेय ने उसकी शिक्षा-दीना का समुचित प्रबंध किया : बालक कुशाग्र बुद्धि था। थोड़े वर्षो मे, अल्पः परिश्रम से ही उसने विविध शास्त्रों और कलाओ का ज्ञान प्राप्त कर लिग। राजनीति से वह अत्यन्त निपुण हो गया था। उसे राजनीतिक दाव-पेच सली-भांति आ गये थे। कठिन उलझी हुई समस्या को वह वात की बात मे सुलझा डालता था। उसकी राजनीति: निपुणता, उसकी धर्मनिष्ठा और उसके विनम्र स्वभाव को देखकर प्रजा उसकी अरि-भूरि प्रशंसा करतो और सुयोग्य उत्तराधिकारी पाकर अपने सद्भाग्य की सराहना करती थी। बालक करणवेग अपने माता-पिता आदि आत्मीय जनो के ह्रदय और नयनो को आनन्द पहुंचाता हुआ धीर-धीरे द्वितीया के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा। . ..अब करणवेग ने युवावस्था से प्रवेश किया । उसकी मुठो की रेख दिखाई देने लगी और कांख मे वाल आने लगे। राजा ने.करणवेग की यवावस्था देख और उसे सर्वथा विवाह के योग्य समझ कर अपने सामंत राजा की एक सर्वगुण संपन्न सुन्दरी कन्या पद्मश्री के साथ उसका विवाह कर दिया। राजकुमार-चौर उसकी पत्नी ये दोनो आनंदमयी समयको व्यतीत करने लगे। . प्राचीन काल मे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारो पुरुपार्थो को परस्पर बाधा न पहुंचाते हुए सेवन किया जाता था ।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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