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________________ २७३ परिशिष्ट हालत में लम्बा चौड़ा वादविवाद होता और संभव है, कि फिर भी कही न कहीं मतभेद बना रह जाता। _शंका-जिन विषयों पर केशी-गौतम प्रश्नोत्तर हुए हैं, उन्हीं विपयों को प्रश्नोत्तर के लिए क्यों चुना गया ? दूसरे विपयों की चर्चा क्यों नहीं की गई ? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता, कि इन्हीं विषयों में मतभेद था। समाधान-इस शंका के दो समाधान है। प्रथम तो यह, कि जिन विषयों को लेकर विधर्मियों ने मतभेद की निराधार बात उड़ाई होगी उन्ही विषयों पर वार्तालाप करके दोनों संघों को वस्तुस्थिति समझाना आवश्यक समझा गया। अन्य विपयों की चर्चा की आवश्यकता ही न थी। दूसरे यदि इनके अतिरिक्त अन्य विषयों पर प्रश्नोत्तर होते, तो भी यह प्रश्न ज्यों कात्यों कायम रहता, कि उन्हीं पर चर्चा क्यों, औरों पर क्यों नहीं ? इस प्रकार के प्रश्न प्रत्येक के विषय में किये जासकते है और ये निरर्थक इसी प्रकार वेष के विपय में तथा अन्यान्य विषयों में हुए प्रश्नोत्तरों की स्थिति है । वस्तुतः दोनों तीर्थंकरों ने एक ही धर्म का उपदेश दिया था। उनके उपदेशों में कुछ भी मतभेद न था। मतभेद होता तो पार्श्व-संघ के प्रधान आचार्य अपने संघ के साथ भगवान महावीर की छत्र-छाया में न आकर अलग ही रहते और अपने धर्म का पहले की ही भांति स्वतन्त्र रूप.से उपदेश करते। तीर्थकरो के उपदेश मे पारस्परिक विरोध की कल्पना नहीं की जा सकती। अतएव जो लोग भ०महावीर को नग्नता का प्रवर्तक और भ०पार्श्वनाथ को सवस्त्रता का प्रवर्तक मान कर विरोध की कल्पना करते है, वह भी अयुक्त है । जिनशासन में केवल वेप
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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