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________________ निर्वाण २६७ उनका उद्धार किया। भगवान् के समय धर्म के नाना भ्रान्तरूप फैले हुए थे। लोग यज्ञों मे हिंसा करके और अज्ञान तपस्या करके अपने को कृत-कृत्य समझने लगते थे, सैंकड़ों बाल-तपस्वी सर्वत्र अपना अड्डा जमाये हुए थे और जनता के समक्ष मनचाही धर्म प्ररूपणा करके अपना स्वार्थ-साधन करते थे। अहिसा,संयम और तप रूप वास्तविक धर्म को लोगों ने विस्मत कर दिया था। प्रभु ने इन सब भ्रान्तियों का निराकरण किया। उनके द्वारा सद्धर्म का प्रचार हुआ । अहिंसा, सत्य आदि की प्रतिष्ठा हुई । संयम और तपस्या का मार्ग खुल गया। सभी लोग जिन धर्म का शरण लेकर आत्महित के प्रशस्त पथ मे अग्रसर हो गये। भगवान ने अरिहंत अवस्था में पुष्पचला आदि ३८ हजार महिलाओं को तथा आरदत्त गणधरादि सोलह हजार व्यक्तियों को मुनिधर्म मे दीक्षित किया। सूर्य प्रभति एक लाख चौसठ हजार गहस्थों को बारह व्रतधारी श्रावक बनाया । तीन लाख उनचालीस हजार महिलाओं को देशविरति संयम देकर श्राविका बनाया। सोलह हजार मुनियों में एक हजार मुनि केवलज्ञानी थे, साढ़े सातसौ मुनि मन.पर्याय-ज्ञानी थे और चौदह सौ मुनि अवधिज्ञानी थे। साढ़े तीन सौ मुनि चौदह पर्व के वेत्ता थे। ग्यारह सौ मुनि बैंक्रिय लब्धि के धनी थे। छह सौ मुनि वादविवाद करने वाले प्रखर वाग्मी थे और शेष मुनि ज्ञान-ध्यानतप करने वाले थे। भगवान पार्श्वनाथ के साधु पांच वर्गों में से किसी भी वर्ण का रस पहन-जोड़ सकते थे। चाहे वे वस्त्र बहुमूल्य हों या अन्य मूल्य हो,पर मुनियों को उन पर किसी प्रकार का रागद्वेष न
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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