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________________ RAJAsh २६६ पार्श्वनाथ दीनदयाल भगवान पाश्वनाथ ने फरमाया-"हे भद्र! सुबह का भूला शाम को ठिकाने पहुंच जाय तो वह भला नहीं कहलाता, ऐसा लोक-प्रवाद है। तुम ने अज्ञान अवस्था मे पाप किये है। अब तुम सन्मार्ग पर आगये हो । वीतराग-धर्म पतितपावन है। इसका आश्रय लेकर नीच-ऊँच, अधम-उत्तम सभी दुखों से मुक्त हो सकते है। गत काल के कृत्यों पर पश्चाताप करके । आगामी काल को सुधारना बुद्धिमानों का कत्तव्य है। तुम इस कर्तव्य का पालन करो। यही हित का, सुख का और शान्ति का मार्ग है । घोर से घोर पापी इस मार्ग का सहारा लेकर तिर गये वन्धुदत्त ने पूछा-'प्रभो ! अनग्रह करके यह भी बताइए, कि आगामी भव मे मेरी क्या गति होगी ?' भगवान् ने फरमाया__ तुम इसी जन्म मे संयम धारण करके पांचवें स्वर्ग मे देव होओगे । वहाँ दिव्य ऐश्वर्य का भोग करके महाविदेह क्षेत्र मे उत्पन्न होकर चक्रवर्ती बनोगे । चक्रवर्ती के अखंड साम्राज्य के अधीश्वर बन कर फिर उसे त्याग कर जैन दोक्षा धारण करोगे। जैनेन्द्री दीक्षा का विधिवत् पालन करके अन्त मे सिद्ध, वृद्ध होओगे । चन्द्रसेन भी वहां दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त करेगा। भरागांव के निवासी अशोक माली के जीव ने भी पार्श्व प्रभु से अपने पूर्व भवों का वतान्त श्रवण कर अपनी आत्मा का उद्वार किया। निर्वाण इस प्रकार अनेक पापी जीवो को सन्मार्ग पर लगाकर प्रभु ने
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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