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________________ पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास कुछ समय बाद एक ही जाति के लोग दो अलग-अलग आम्नायो को मानने लगे हो । क्योकि किसी भी समुदाय या वर्ग का एक जाति मे परिणित होना उस समुदाय के समस्त लोगो के खान-पान, रीति-रिवाज, रहन-सहन तथा धर्म की समानता पर निर्भर करता है । यदि दो वर्ग अलग-अलग धमों को मानने वाले हो तो उनका एक ही जाति के रूप में उभरकर आना असम्भव ही है। यदि पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति बारहवी शताब्दी माने तब अलग-अलग आम्नायो को मानने वाले लोग एक ही जाति में कैसे परिणित हो सकते हैं ? जबकि दो अलग-अलग प्राम्नायो को मानने के कारण दो अलग-अलग जातियो का निर्माण होना चाहिए था। प्रत पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी मे नही बल्कि उससे बहुत पहले ही गई थी। प्राचार्य कुन्दकुन्द पल्लीवाल जात्युत्पन्न थे। इनका जन्म वि स 49 मे हुआ था। अत पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति का समय प्राचार्य कुन्दकुन्द से पूर्व का ही होना चाहिए । 'पल्ली' ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की तामिल भाषा का बहु-प्रचलित शब्द भी है। अत पल्लीवालो की उत्पत्ति का समय भो वि पहली सदी (ईसा पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी) मानना चाहिए। [२.६] पल्लोवाल जाति का विकास बहुत समय तक पल्लीवाल दक्षिण के तामिल प्रदेश में ही रहते रहे । कालान्तर मे ये उत्तर भारत की प्रोर पलायन कर गये। विक्रम को दसवी शताब्दी तक ये लोग कन्नौज तथा इटावा अचल में फैल गये तथा अन्तिम रूप से यहीं पर रहने लगे। धिक्रम की तेरहवी शताब्दी के मध्य तक ये पल्लीवाल बिना किसी कठिनाई के यहाँ प्रानन्दपूर्वक रहते रहे। वि म 1251 (सन् 1194) मे मुहम्मद गौरी जब बनारस की ओर जा रहा था, तब उसकी मुठभेड उस समय के इटावा
SR No.010432
Book TitlePallival Jain Jati ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnilkumar Jain
PublisherPallival Itihas Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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