SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास रुपये माहवार पर नौकरी कर ली। आपको इस काम मे कभीकभी रात के ग्यारह-बारह बज जाते थे । आजीविका के लिए इतना परिश्रम करते हुये भी आपने अपने नित्यकर्म सामायिक, पूजन, जार व स्वाध्याय को कभी नही छोडा। इस कार्य के लिए उस ममय पुस्तके उपलब्ध नही होती थी, अत इन्होने अपने हाथ से लिखकर गुटके तैयार किये थे जिनमे से दो गुटके तो अभी तक आपकी यादगार के तौर पर लाहौर के मन्दिर जी के शास्त्र भडार मे रखे हुये है। नित्य पाठ की, पूजन की व स्वाध्याय के लिये पुस्तको का लाहौर मे न मिलना एक प्रेम मे कार्यकर्ता के रूप मे आपको हृदय मे बहुत खटकता था। इस कारण आपके मन मे इन सबो के प्रकाशन का विचार आया। इस विचार के कुछ पोर जैनी भाई भी थे। इन सबो ने अनुभव किया कि किसी दूसरे छापेखाने मे धार्मिक पुस्तके छपवाये तो उनकी छपाई विनय व शुद्धतापूर्वक नही हो सकती है। अत एक छोटा सा निजी प्रेस खोलने का फैसला किया। यह कार्य बिना धन के असम्भव था, अत कुछ अन्य लोगो के आर्थिक सहयोग (हिस्सेदारी) के साथ सन् 1888 मे 'पजाब इकानोमीकल प्रेस' के नाम से अपना प्रेस खोल दिया। आप इस नौकरी का छोड कर इस प्रेस मे पच्चीस रुपये माहवार पर प्रिंटर व मैनेजर के पद पर कार्य करने लगे। आपने अपनी मित्र मडली की राय के अनुसार 'जैन धर्मो नतिकारक' नामक एक छोटा सा ट्रेक्ट छपवाकर बिना मल्य के जैन समाज मे वितरण किया, जिसमे बन्द जैन ग्रन्थ भडारो मे जिनवाणी की चूहे तथा दीमको के कारण कितनी दुर्दशा हो रही है, इस बात का उल्लेख किया। इसके बाद जैन धर्म की छोटीछोटी पुस्तके आदि का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ग्रन्थ प्रकाशन कार्य का प्रचार करने के उद्देश्य से 'जैन पत्रिका' (दिगम्बरी)
SR No.010432
Book TitlePallival Jain Jati ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnilkumar Jain
PublisherPallival Itihas Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy