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________________ अनुवाद २५ ७६ हे जोगी ! जिसके हृदय में जन्म-मरण से विवर्जित एक परम देव निवास करता है वह परलोक को प्राप्त करता है। Ge ७८ ७९ ८० जो पुराने कर्म को खपाता है और नये का प्रवेश नही होने देता, तथा जो परम निरंजन (देव) को नमस्कार करता है वह परमात्मा हो जाता है । ૨ पाप का आत्मा में तभी तक परिणाम होता है और तभी तक कर्म-वंध होता है, जब तक, निर्मल होकर, परम निरंजन को नही जान लेता । दर्शन और ज्ञानमयी निरंजन देव परम आत्मा अन्य ही है। आत्मा ही सच्चा मोक्ष पथ है । हे मूढ ! ऐसा जान । (लोक) तभी तक कुतीर्थों का परिभ्रमण करते हैं और तभी तक धूर्तता भी करते हैं जब तक वे गुरु के प्रसाद से देह के देय को नही जान लेते । ८१ तूं तभी तक लोभ से मोहित हुआ विषयों में सुख मानता है, जब तक कि, गुरु के प्रसाद से, अविचल बोध नही पाया । जिससे विशेष बोध (अर्थात् आत्मज्ञान) उत्पन्न न हो ऐसे त्रैलोक्य को प्रकट करने वाले ज्ञान से भी (जीव ) वहिनी ( वहिरात्मा) ही रहता है, जिसका कि परिणाम अशुभ है ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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