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________________ पाहड-दोहा भाषा में वे तीन प्रकार के शब्दों का प्रचलित होना स्वीकार करते है, समान ( तत्सम ), विभ्रष्ट (तद्भव) और देशी । वे पुनः कहते हैं कि प्रयोग में भिन्न भिन्न जातिभापायें आती हैं जो म्लेच्छ शब्दों से युक्त होकर भारतवर्ष में प्रचलित हुई हैं। नाटक में सौरसेनी या इच्छानुसार देशभाषा का उपयोग करना चाहिये । मागधी, आवन्ती, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, वाल्हीका, और दाक्षिणात्या, ये सात भाषायें प्रसिद्ध हैं। शबर, आभार, चाण्डाल, सचर, द्रविड, उद्रज, हान और वनचरों की भाषायें नाटक में विभापा मानी गई हैं। यथा--- एवं संस्कृतं पाठ्यं मया प्रोक्तं समासतः ।। प्राकृतस्य तु पाठयस्य संप्रवक्ष्यामि, लक्षणम् ॥१॥ एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुणवर्जितम् । विज्ञेयं प्राकृतं पाट्यं नानावस्थान्तरात्मकम् ॥ २॥ त्रिविध तच्च विज्ञेयं नाट्ययोगे समासतः । समानशब्दै विनष्टं देशीमतमथापि वा ॥ ३ ॥ विविधा जातिभाषा च प्रयोगे समुदाहृता। म्लेच्छशब्दोपचारा च भारत वर्षमाश्रितम् ॥ २८ ।। अथ या जात्यन्तरी भाषा प्रामारण्यशृङ्ख्या । नानाविहंगजा चत्र नाट्यधर्मी प्रयोगना ॥ २० ॥
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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