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________________ देशी भाषा और अपभ्रंश ३५ इससे विद्यापतिजी के अनुसार देशी और अपभ्रंश एक ही भाषा ठहरती है । यदि वह भिन्न समझी जावें तो उनका कहना वैसा ही होगा जैसा कोई कहे कि ' दिल्ली शहर देखने लायक है इसलिये मैं उसके पास वाले शहर मथुरा को जा रहा हूं ' । अब हम इस विषय के ऐतिहासिक प्रमाणों पर दृष्टि डालेंगे | " अपभ्रंश शब्द का भाषा के सम्बन्ध में सबसे प्रथम उल्लेख हमें पातञ्जलि के महाभाष्य में मिलता है । वहां उन्होने कहा है ' एकस्यैव शब्दस्य बहवो अपभ्रंशाः । तद्यथा गौरित्यस्य गावी, गोणी, गोता, गोपोतालिकेत्येवमादयोऽपभ्रंशाः । प्राकृत भाषा के प्राचीनतम व्याकरणकार चण्ड ने तथा प्राकृत व्याकरण के श्रेष्ठ प्रमाण हेमचन्द्र ने अपने अपने व्याकरणों में उक्त रूपों में से कुछ प्राकृत के सामान्य रूप स्वीकार किये हैं । इससे ज्ञात हुआ कि पातञ्जलि ने संस्कृत से निकली हुई सभी भाषाओं को अपभ्रंश माना है, तथा जिन भाषाओं को हम आज अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि नाम देते हैं, पाताञ्जलि के मत से वे, सभी अपभ्रंश कही जाना चाहिये । भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र के १७ वें सम्बन्ध में बहुत कुछ प्राकृत कहते हैं प्राकृत व देशी भाषाओं के संस्कृत से विकृत हुए रूप को वे X चण्ड 'गो गविः प्राकृत लक्षण २, १६, व्याकरण २, १७४, ' गोणादयः 'गौः, गोणो, गावी, गावः, अध्याय में कहा है । और प्राकृत प्राकृत 6 । हेम. गावी भ "
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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