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________________ टिप्पणी होगी । जव जीव सर्वथा निर्मम हो जाता है तब उस पर सांसारिक द्वन्द्व का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । देखो ऊपर दोहा ७४. १०३. तात्पर्य यह कि बहुधा लोग कहा करते हैं कि यौवन में संसार के सुखों का पूरा आनन्द लेकर वृद्धावस्था में धर्मसेवन कर लेंगे और अगला भव सुधार लेंगे। किन्तु जब . बुढापा आता है तब शरीर की शिथिलता के साथ मन की सब शक्तियां भी नष्ट हो जाती हैं । उस समय धर्मसाधन की कौन कहे परमात्मा का स्मरण करनेवाले भी बहुत थोड़े ही निकलते हैं। अधिकतः लोग आतध्यान में ही समय बिताते हैं । १०४. अर्थात् जिसका मन सांसारिक पदार्थों से हट कर मन के परे जो आत्मा है उसमें स्थिर होगया उसे फिर संसार के मायाजाल में फंसने का डर नही रहता। १०६. दोनों मूल पोथियों में ' सुक्खडा ' पाठ है किन्तु इसमें एक मात्रा की कमी होने से छंदोभंग होता है इससे 'सुक्खअडा ' पाठ कर दिया गया है। १०७. 'जोइ' अनुवाद में ' पश्य ' के समरूप लिया गया है। यदि उसे ' योगिन् । के समरूप मानें तो यह अर्थ होगा “ जो देह से भिन्न, ज्ञानमय है, हे जोगी, वही आत्मा तू है।" १०८. 'पुत्तिए' (पुत्रिके ) अम्मिए ( अम्बिके ) के सदृश सम्बोधनार्थ अव्यय सा प्रतीत होता है । धनपाल कृत
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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