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________________ ११२ पाहुड-दोहा एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे वाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ ५९ ॥ ७४. दोहे का सारांश यह है कि जिस प्रकार अणुमात्र कांटा भी यदि शरीर में चुभ जाये तो पीड़ा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अणुमात्र भी परभाव जब तक आत्मा में बना हुआ है तब तक उसे सच्चा सुख अर्थात् मोक्ष नही मिल सकता । देखो बोधपाहुड तिलतुसमत्ताणमित्तं समवाहिरगंथसंगहो णत्थि । पचज हवद एसा जह भणिया सव्वदरिसीहिं ॥ ५५ ॥ ७७. यह दोहा थोड़े से परिवर्तन के साथ पुन नं. १९३ पर पाया जाता है । ८६. दोहे का भावार्थ पूर्णतः स्पष्ट नही है । तात्पर्य यह समझ पड़ता है कि जिस प्रकार वंश अर्थात् उच्च वंश की प्राप्ति न होने से डोम दूसरों के हाथ जोड़ते हैं, अर्थात् पराधीन रहते हैं उसी प्रकार जो शब्दाडम्बर का ही अभिमान करके सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नही करते वे मुक्त नही हो पाते, अर्थात् संसार में ही भ्रमण करते हैं । ८७. जैसे अनि का कण प्रज्वलित होकर वन के हरे व सूखे सभी झाड़ों को भस्म कर डालता है उसी ज्ञान, पूर्णता को प्राप्त होने पर, समस्त पुण्य करके मुक्ति का मार्ग साफ कर देता है। प्रकार एक आत्मऔर पाप का नाश ऊपर दोहा ७२ में
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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