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________________ टिप्पणी १११ बाहरी आचार-विचार का पूरा पंडित और उपदेशक है उसके मन में यदि आत्मा के सच्चे स्वरूप की भावना उत्पन्न नही हुई तो वह भी मोक्ष नही पा सकता । । वह आठ प्रकार ६६. जीव के रागद्वेपादि परिणामों से जो परमाणुओं का बन्ध होता है उसे कर्म कहतें हैं आत्मा के गुणों को दबाने या ढक लेने का है । का माना गया है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन्हीं आठ बंधों के प्रभाव से जीव को संसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं का अनुभव होता है । जीव और कर्म कर्म का स्वभाव ६८. जैनधर्म में वस्तुओं के स्वरूप को समझने तथा वर्णन करने के दो दृष्टि- कोण हैं जिन्हे नय कहते हैं एकनिश्चय नय और दूसरा व्यवहार नय । निश्चय नय में वस्तु के असली, अमिट स्वरूप का ही विचार किया जाता है, तथा व्यवहार में उसके क्षेत्रकालादि परिस्थिति पर ध्यान देकर विचार किया जाता है । प्रस्तुत दोहे का तात्पर्य यह है कि आत्मा का असली स्वरूप, निश्चय नय से तो चैतन्य अर्थात् देखना और जानना ( दर्शन और ज्ञान ) है, किन्तु व्यवहार में इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि का व्यापार भी आत्मा का रूप माना जाता है । दोहे की दूसरी पंकि में योगियों को निश्चय नय से आत्मा को पहचाने तथा अगले दोहे में व्यवहार दृष्टि को छोड़ने का उपदेश दिया गया है । देखो भावपाहुड़ की निम्न गाथा
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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