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________________ ६५ २१० भव भव में मलरहित सम्यग्दर्शन होवे, भव भव में समाधि करूँ और भव भव में मन में उत्पन्न होनेवाली व्याधि का निहनन करने वाला ऋपि मेरा गुरु होवे । अनुवाद २११ हे जीव ! एकाग्र मन से वारह अनुप्रेक्षा की भावना कर जिससे शिवपुरी प्राप्त होवे । रामसिंह मुनि ऐसा कहते हैं । २१२ शून्य शून्य नहीं है । त्रिभुवन में शून्य शून्य दिखाई देता है । शून्य स्वभाव में गत आत्मा पाप और पुण्य का अपहार कर देता है । २१३ दो रास्तों से जाना नही होता । दो मुख की सूजी से कथरी नहीं सीई जाती। हे अजान ! दोनो वातें नही हो सकतीं, इन्द्रिय सुख भी और मोक्ष भी । २९४ उपवास से प्रदीपन होता है, देह को संताप पहुंचता है और इंद्रियों का घर दग्ध होता है। मोक्ष का कारण यही है । २१५ उनके घर का भोजन रहने दो जहां सिद्ध का अपहरण हो । उनके साथ जय ( जय जिनेन्द्र ) करने से भी सम्यक्त्व मैला होता है । २१६ हे जोगी ! पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए यदि माणिक्य मिल गया तो उसे अपने कपड़े में बांध लेना चाहिये और एकान्त में देखना चाहिये ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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