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________________ नेमिनाथमहाकाव्य ] [ ३१ रणरात्रौ महीनाथ चन्द्रहासो विलोक्यते । वियुज्यते स्वकांताभ्यश्च वारिवारिभि ॥७२७ जिनेश्वर की लोकोतर विलक्षगता का चित्रण करते समय कवि की कल्पना अतिशयोक्ति के रूप में प्रकट हुई है । यद्यर्कदुग्धं शुचिगोरसस्य प्राप्नोति साम्य च विष सुधाया । देवान्तर देव | तदा त्वदीया तुल्या दधाति त्रिजगत्प्रदीप ॥६॥३५ समुद्रविजय की राजधानी सूर्यपुर के वर्णन मे कवि ने परिसख्या का भी आश्रय लिया है। न मन्दोऽत्र जन कोऽपि पर मदो यदि ग्रह । वियोगो नापि दम्पत्योवियोगस्तु पर वने ।।१।१७ शब्दालड्दारो मे अनुप्रास तथा यमक के प्रति कवि का विशेष मोह है । नेमिनायकाव्य मे इनका स्वर, किसी-न-किसी रूप मे, सर्वत्र ध्वनित रहता है । अन्त्यानुप्रास का एक रोचक उदाहरण देखिये ।। जगज्जनानदथुभदहेतुर्जगत्त्रयक्लेशसेतु । जगत्प्रभुर्यादववशकेतुर्जगत्पुनाति स्म स कम्बुकेतु ॥३३७ यमक के प्राय सभी भेद काव्य में प्रयुक्त हुए हैं। पादकयमक तथा महायमक का दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है। इन्हे छोडकर कीतिराज ने यमक की ऐसी विवेकपूर्ण योजना की है कि उसमे क्लिष्टता नहीं आने पाई। आदियमक प्रस्तुत पद्य की शृगारमाधुरी को वृद्धिगत करने में सहायक चना है। वनिसयानितया रमणं फयाप्यमलया मलयाचलमारत । धुतलतासल-तामरसोऽधिको नहि मतो हिमतो विषतोऽपि न । ८।२१ ऋतु वर्णन वाला अष्टम सर्ग आद्यन्त यमक से भरपूर है । समुद्रविजय तथा शिवा के इस वार्तालाप मे वृपभ, गौ, वृपाक तथा माङ्कर की भिन्नार्य मे योजना करने से वक्रोक्ति का सुन्दर प्रयोग हुआ है ।
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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