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________________ नेमिमापमहाकाय ] [ २३ भाषा नेमिनाथमहाकाव्य की सफलता का अधिकाश श्रेय इमकी प्रसादपूर्ण तथा प्राजल भापा को है। विद्वत्ताप्रदर्शन, उक्तिवैचित्र्य, अलङ्करणप्रियता आदि ममकालीन प्रवृत्तियो के प्रवल आकर्षण के समक्ष आत्म-समर्पण न करना कोतिराज को सुरुषि का द्योतक है। नेमिनाय महाकाव्य की भापा महाकाव्योचित गरिमा तथा प्रारणवत्ता से मण्डित है । कवि का भापा पर पूर्ण अधिकार है किन्तु अनावश्यक अलङ्करण की गोर उसकी प्रवृत्ति नही है । इसीलिए उसके काव्य मे भावपक्ष और कलापक्ष का मनोरम ममन्वय है । नेमिनाथकाव्य की भाषा की मुख्य विशेपता यह है कि वह भाव तथा परिस्थिति की अनुगामिनी है। फलत वह प्रत्येक भाव अथवा परिस्थिति को तदनुकूल शब्दावली में व्यक्त करने में समर्थ है। भावानुकूल शब्दो के विवेकपूर्ण चयन तथा कुशल गुम्फन से ध्वनिसौन्दर्य की सृष्टि करने में कवि सिद्धइम्त है । अनुप्रास तथा यमक के विवेकपूर्ण प्रयोग से काव्य मे मधुर झकृति का नमावेश हो गया है । प्रस्तुत पद्य मे यह विशेषता देखी जा सकती है। गुरुणा च यत्र तरुण गुरुणा वमुधा क्रियते सुरमिसुधा। फमनातुरैति रमणेकमना रमणी सुरस्य शुचिहारमणी ॥३५१ शृङ्गार आदि कोमल भावो के चित्रण की पदावली माखन-सी मृदुल, सौन्दर्य-सी मुन्दर तथा यौवन-सी मादक है। ऐसे प्रमङ्गो मे अल्प समास चाली पदावली का प्रयोग हुआ है। नवे सर्ग मे भापा के ये गुण भरपूर मात्रा मे विद्यमान हैं । युवा नेमिनाथ को विषय-भोगो की ओर आकृष्ट करने के लिये भाषा की सरलता के साथ कोमलता भी आवश्यक थी। विवाहय कुमारेन्द्र । चालाश्चचललोचना । भुक्ष्य भोगान् सम तामिरप्सरोभिरिवामरः ।।६।१२ हेमाजगर्म गौरागी नृगाक्षी फुलबालिकाम् । ये नोपमु जते लोका वेवसा वचिता हि ते ॥६।१४
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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