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________________ पष्ठ सर्ग [ नेमिनाथमहाकान्यम् ___ केवल ज्ञानियो मे थेष्ठ आपको नमस्कार । है पुरुप रूपी श्वेत कमल ! आपको नमस्कार । भवसागर को तैरने वाले नापको नमस्कार । सेवको को पार लगाने वाले आपको प्रणाम ॥४३॥ हे सर्वज्ञ | ससार कुछ भी कहे, किन्तु मेरे विचार मै आप ही एकमात्र देव हैं, जिसे देखते ही तत्वज्ञो की आंमें हथि, बरमाने लगती हैं ॥४४॥ हे जगत्पति ! आपकी स्तुति करने से यदि वाणी रुक गयी है, वह इसलिये नही कि आपके गुण इतने ही हैं बल्कि यह थकावट अथवा अज्ञान के कारण है, देवराज इम प्रकार ( जिनेन्द्र की ) स्तुति करके चुप हो । गया ॥४५॥ स्तनो रूपी कुम्भो के भार से कुछ मुकी हुई , शिरीप के फूल से भी अधिक कोमल, मस्ती से अलसाई तथा विलास के कारण अवमुदी आंखो वाली जो अप्सराएँ थी ।।४।। अतीव कोमल रेशमी वस्त्र से ढकी, करवनी के सूत्री के उत्तम रत्नो से युक्त जिनकी जघनस्थली ऐसे शोभायमान थी मानो वह कामदेव की बैठने की गद्दी हो ॥४७॥ जिनकी नील मणियों के कर्णाभरणो से युक्त, सोने के समान काति चाली गालें, शश के काले चिह्न से अङ्कित अष्टमी के चमक्ते हुए चन्द्रमा की शोभा को मात कर रही थी ॥४८|| .. वीर काम के वाणो के प्रहार-से पीड़ित - देवगण, जिनके वियो के समात कठोर स्तनो को छाती पर रखकर ( अर्थात् उनका आलिंगन करके) आनन्द से आँखें वन्द कर लेते हैं और पीड़ा को भूल जाते हैं ॥४६॥ जिनकी अतीव पुष्ट, चम्पक पुष्प के समान कान्ति वाली, सौन्दर्य एव सलोनेपन के रस मे गन्ने के समान कोमल जघाए काम के हाथी की सूण्ड के समान प्रतीत होती थी ॥५०॥
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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