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________________ ७६ ] प्रथम सर्ग [ नेमिनाथमहाकथ्यम् समस्त राजलक्ष्मिय अन्य राजाओ के राज्यो से उसके पास ऐसे आ गयी जैसे कन्याए, विवाह होने पर, पिताओ के घरो से अपने पति के पास आती हैं |३८| उसकी शक्ति विभूति के समान थी, कार्य शक्ति के अनुरूप था, ' प्रसिद्धि कार्य के बरावर थी, कीत्ति रूपाति के अनुकूल थी, रूप कीर्त्ति के तुल्य था, अवस्था रूप के समान थी किन्तु बुद्धि उम्र से अधिक थी । ३६-४० उस तेजस्वी को विपक्षी कठिनाई से देख सकते थे, किन्तु पक्षधरो ( हितैषियो) के लिये वह दर्शनीय हो था । इस प्रकार वह सूर्य के समान था, जिसे चकवे तो देख सकते हैं, उल्लू नही १४१ | 1 वह राजा पवित्र जैन धर्म को प्राण, घन तथा पत्नी से भी अधिक प्रिय समझता था |४२ | केवल क्षमा नपुसकता है और केवल प्रचण्डता विवेकहीनता है, अत. वह दोनो के समन्वय से ही कार्य की सफलता मानता था |४३| I जव वह पृथ्वी की रक्षा कर रहा था तव मेघ समय पर वरसता था, पृथ्वी रत्न उपजाती थी और लोग चिरकाल तक जीवित रहते थे |४४| वह कजूसी के कारण नही अपितु मर्यादा के लिये धन का संग्रह करता था और राजनियम के कारण प्रजा से कर लेता था, लोभ से नही |४५ पृथ्वी का रक्षक, सुन्दर शरीर, विपक्षी सेना के वघ तथा विजयी सेना का स्वामी होने के कारण वह देवराज इन्द्र की वरावरी करता था । ( इन्द्र स्वर्ग का रक्षक देव, है और वल नामक दैत्य का वधकर्ता तथा इन्द्राणी का पति है ) |४६ | उस राजा ने ( अपने राज्य मे ) न्यायप्रिय, वुद्धिमान् तथा शास्त्रज्ञो मे अग्रणी मन्त्रियों को नियुक्त किया जैसे अच्छा गुरु प्रतिभाशाली छात्रो को ग्रहण करता है |४७
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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