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________________ नेमिनाथ चरित्र इस बातसे बड़ा ही दुःख हुआ कि वह ब्राह्मण उसे रूपवती बनानेका प्रलोभन देकर उलटा उसे विरूप बनाकर चला गया। इसलिये वह अपने मनमें कहने लगी कि:-"अब तो मुझे रुक्मिणीके सामने और भी नीचा देखना पड़ेगा।" उसे यह भली भाँति खयाल था कि आज रुक्मिणीका शिर मुड़ाया जायगां, परन्तु अब तक वह चुपचाप बैठी हुई थी। ब्राह्मण देवताकी कृपासे जब वह अपना शिर मुड़ाकर विरुप बन गयी, तब वह कहने लगी, कि अब रुक्मिणीका शिर मुड़ानेमें भी विलम्ब न करना चाहिये। यह सोचकर उसने उसी समय कई दासियोंको एक टोकरी देकर आज्ञा दी कि इस. टोकरीमें रुक्मिणीके केश ले आओ। सत्यभामाके आदेशानुसार दासियाँ रुक्मिणीके पास गयीं और उनसे कहने लगी कि हमारी स्वामिनीने आपके केश ले आनेके लिये हमें आपकी सेवामें भेजा है। उस समय मायामुनि भी वहाँ बैठे हुए थे। दासियोंका उपरोक्त वचन सुनकर वे उठ खड़े हुए और अपनी विद्या के बलसे क्षणमात्रमें उन सोंके शिर मँड,
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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