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________________ 100 नेमिनाथ-चरित्र सोलहवर्षका तप कहीं भी नहीं सुना। हाँ, उपवाससे लेकर एक वर्षका तप अवश्य सुना है ।" माया साधुने कुछ रुष्ट होकर कहा :- " आपकी इन सब बातों पर विचार करनेकी कोई आवश्यकता नहीं हैं। यदि आपके घरमें कुछ हो और आप मुझ देना चाहती हों तो दे दें, अन्यथा मैं सत्यभामाके यहाँ चला जाऊँगा । रुक्मिणीने कहा :- "नहीं महाराज, आप नाराज न होइये । असल बात तो यह है कि आज मैंने चिन्ताके कारण कुछ भी भोजन नहीं बनाया है । इसलिये ऐसी अवस्थामें आपको मैं क्या दूँ ?" माया साधु ने गंभीरता पूर्वक पूछा :- "आज आपको इतनी चिन्ता क्यों हैं ?" रुक्मिणीने कहा :- "महाराज ! मुझे एक पुत्र हुआ था पर उसका वियोग हो गया है। अबतक मैं उसके मिलनकी आशा में कुल देवीकी आराधना कर रही थी। आज मैंने कुल देवीके समक्ष अपने शिरका वलिदान चढ़ाना स्थिर किया और तदनुसार ज्योंहीं मैंने अपनी
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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