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________________ नेमिनाथ-चरित्र तुमने प्रथम रात्रिमें ही सागरदत्तकी कन्याका त्याग कर बहुत ही अनुचित कार्य किया है। खैर, अभी कुछ विगड़ा नहीं है। तुम इसी समय उसके पास जाओ और उसे सान्त्वना देकर शान्त करो। तुम उसके निकट रहनेके लिये वाध्य हो, क्योंकि मैंने अनेक सन्जनोंके सामने इसके लिये प्रतिज्ञा की है।" ___ सागरने हाथ जोड़ कर कहा :-"पिताजी ! इसके लिये मुझे क्षमा करिये। मैं आपकी आज्ञासे अग्निमें प्रवेश कर सकता हूँ, परन्तु सुकुमारीकाके पास जाना मुझे स्वीकार नहीं है।" सागरदत्त भी दीवालकी ओटसे अपने जमाईकी यह बातें सुन रहा था, इसलिये वह निराश होकर अपने घर चला गया। उसने सुकुमारीकासे कह दिया कि सागर तुझसे विरक्त है, इसलिये अब उसकी आशा रखनी व्यर्थ है। तू खेद मत कर ! मैं शीघ्र ही तेरे लिये अब दूसरा पति खोज दूंगा।" __- सागरदत्तने इस प्रकारके वचनों द्वारा अपनी पुत्रीको तो सान्त्वना दी, किन्तु इस घटनासे उसका चित्त रात
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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