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________________ तेरहवाँ परिच्छेद ५५१ पल्लीपतिको पराजित कर कुछ दिनोंके बाद मधु उसी रास्तेसे वापस लौटा। अभिमानी तो वह था ही, इस बार विजयके कारण वह और भी अधिक उन्मत्त हो रहा था । कनकप्रभने पूर्वचत् इस बार भी उसका स्वागत सत्कार कर उसकी सेवामें बहुमूल्य भेट उपस्थित की, किन्तु मधुने कहा :-- "मुझे तुम्हारी यह भेट न चाहिये। मुझे चन्द्राभा दे दो, वही मेरे लिये सर्वोत्तम भेट है।" कनकप्रभने इसबार भी नम्रतापूर्वक इन्कार किया, किन्तु मधुने उसकी एक न सुनी। वह चन्द्राभाको बल-पूर्वक रथमें बैठा कर अपने नगरकी ओर चलता बना । कनकप्रभमें इतनी शक्ति न थी, कि वह उसके इस कार्यका पूरी तरह विरोध कर सके। वह अपनी प्रियतमाके वियोगसे मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। कुछ समयके बाद जब उसकी मूर्च्छा दूर हुई, तब वह उच्च स्वरसे विलाप करने लगा। उसके लिये वास्तवमें यह दुःख असह्य था । वह इसी दुःखके कारण पागल होगया और चारों ओर भटक कर अपने दिन बिताने लगा ।
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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