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________________ ४५३.० बारहवाँ परिच्छेद केश, रोषपूर्ण लाल लाल नेत्र और मूर्तिमान दरिद्रताका सा भयंकर रूप देखकर वे सन्न हो गये। पूछताछ करने. पर जीवयशाने अतिमुक्तक मुनिके आगमनसे लेकर कंसकी मृत्यु पर्यन्तका सारा हाल उन्हें कह सुनाया । सुनकर जरासन्धने कहा :- " हे पुत्री ! कंसने आरम्भ में ही भूल की थी । उसे देवकीको मार डालना चाहिये था । न रहता बॉस न बजती बाँसुरी । यदि खेत न रहता तो नाज ही क्यों पैदा होता ? परन्तु हे पुत्री ! अब तू रुदन मत कर । मैं कंसके घातकोंको सपरिवार मारकर उनकी स्त्रियोंको अवश्य रुलाऊँगा । यदि मैंने. ऐसा न किया, तो मेरा नाम जरासन्ध नहीं !" इस प्रकार पुत्रीको सन्त्वना देनेके बाद जरासन्धने सोम नामक एक राजाको दूत बनाकर राजा समुद्रविजयके पास मथुरा भेजा। उसने वहाँ जाकर उनसे कहा :- "हे राजन् ! राजा जरासन्धने कहलाया है कि मेरी पुत्री जीवयशा मुझे प्राणसे भी अधिक प्यारी है । उसके कारण उसका पति भी मुझे वैसा ही प्यारा था। आप और आपके सेवक सहर्ष रह सकते हैं, परन्तु
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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