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________________ ३६० नेमिनाथ चरित्र भी— उन्होंने उसे न पहचाना, इसके लिये उन्हें बड़ा दुःख हुआ । वे उसी समय दानशालामें जा पहुँची । वहाँपर उन्होंने दमयन्तीको गलेसे लगा लिया । दमयन्ती भी उन्हें जी खोल कर मिली, क्योंकि उसे यह बात आज अपने जीवनमें पहले ही पहल मालूम हुई, कि चन्द्रयशा उसकी सगी मौसी है । अपना प्रकृत परिचय न देकर छद्मवेशमें रहनेके कारण दमयन्तीको चन्द्रयशाने सख्त उलाहना दियां । . उसने कहा :- " हे वत्से ! मुझे वारंवार धिक्कार है कि मैं तुम्हें पहचान न सकी । मुझे भ्रम तो अनेकवार हुआ, परन्तु मैंने निराकरण एकवार भी न किया । इसके लिये आज मुझे बड़ा ही पश्चाताप हो रहा है । लेकिन इसके साथ ही मैं तुम्हें भी भला बुरा कहे बिना नहीं रह सकती । तुमने छिपे वेशमें रहकर मुझे धोखा क्यों दिया ? तुमने अपना असली परिचय मुझे क्यों नहीं दिया ? दैवयोगसे तुम्हारे शिर यह दुःख आ पड़ा तो इसमें लज्जाकी कौन बात थी । लज्जा भी कहाँ ? - कुलमें! माता-पिता के सामने १” 1
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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