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________________ २०० नेमिनाथ-चरित्र डाली। अन्तमें मदनवेगाके साथ सिद्धायतनकी यात्रा करते हुए मैंने आपको देखा। और उसी समयसे अदृश्य रहकर मैंने आपका पीछा किया । सिद्धायतनसे लौटने पर जिस समय आपके मुखसे मेरा नाम निकला, उस समय भी मैं वहीं उपस्थित थी। उस समय आपका प्रेम देखकर आपके मुखसे अपना नाम ' सुनकर मेरा कलेजा बल्लियों उछलने लगा। मैं उस समय अपने आपको भूल गयी। मैं उसी समय अपनेको प्रकट भी कर देती, किन्तु इसी समय सूर्पणखाने मकानमें आग लगाकर आपका हरण कर लिया। अब उसका पीछा करनेके सिवा मेरे लिये और कोई चारा न था। मैंने मानसवेगका रूप धारणकर उसका पीछा किया, किन्तु वह विद्या और 'औषधियोंमें मुझसे चढ़ी बढ़ी थी, इसलिये मुझे देख, उसने अपने पीछे न आनेका संकेत किया। अपनी निर्बलताके कारण उसके मुकावलेमें मुझे दब जाना पड़ा। मैं घबड़ा कर वहाँसे एक चैत्यकी ओर भगी और असावधांनीके कारण एक साधको लांघ गयी। इस पातकसे मेरी विद्याएँ भी नष्ट
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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