SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा परिच्छेद १५५ भागते-भागते मैं जंगलके उस पार एक गाँवमें जा पहुॅचा । वहॉपर मेरे मामाका रुद्रदत्त नामक एक मित्र रहता था । उसने मुझे आश्रय देकर मेरी सेवा सुश्रूपा की। जब मैं पूर्ण रूपसे स्वस्थ हुआ, तब रुद्रदत्त के साथ व्यापार करना स्थिर हुआ । हमलोगोंने करीब एक लाख रुपये अपने साथ लेकर सुवर्णभूमि के लिये प्रस्थान किया । मार्ग में हमें इषुवेयवती नामक एक नदी मिली। उसे पारकर हमलोग गिरिकूट ( पर्वतके शिखर ) पर पहुँचे । वहाँ से वेत्रवनमें होकर हमलोगोंने टङ्कणप्रदेशमें पदार्पण किया । यहाँ का मार्ग ऐसा था कि जिस पर केवल बकरे ही चल सकते थे, इसलिये हमलोगोंको दो बकरे खरीद कर उन्हीं पर सवारी करनी पड़ी। यह बकरोंका रास्ता पारकर हमलोग और भी विकट स्थानमें जा पहुँचे । वहाँपर रुद्रदत्तने कहा :-- “यहाँसे आगे बढ़नेके लिये कोई रास्ता नहीं है । चारों ओर चिकट पहाड़ियाँ और नदी नालोंकी भरमार है । अब हमें इन बकरोंको मारकर इनकी खाल अपने शरीर पर लपेट लेनी होगी । ऐसा करने पर भारण्ड पक्षी हमलोगोंको
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy