SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ नेमिनाथ चरित्र पागल हो रहा था, इसलिये मैंने अपनी उस पत्नीकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं । मेरी यह अवस्था देखकर मेरे पिताने मेरे लिये ललित गोष्ठीका प्रबन्ध कर दिया । उन्होंने सोचा होगा कि इससे मेरी कामुकता बढ़ेगी और मेरा ध्यान अपनी स्त्रीकी ओर आकर्षित होगा । परन्तु उनके इस कार्यका फल उनकी इच्छानुसार न हुआ । मैं अपने प्यारे मित्रोंके साथ बगीचों की सैर करने लगा और अन्तमें कलिङ्गसेना नामक वेश्याकी पुत्री वसन्त सेनाके प्रेम जाल में उलझ गया । मैं उसके पीछे बारह वर्ष तक पागल रहा । मैं रात दिन वहीं रहता और वहीं खाता-पीता । मैंने सब मिलाकर उसे सोलह करोड़ रुपये खिलाये । इसके बाद जब मैं उसे अधिक धन देनेमें असमर्थ हो गया, तब उसने मुझे अपने घरसे निकाल दिया । लाचार, मुझे फिर अपने घर आना पड़ा । I घर आने पर मुझे मालूम हुआ कि मेरे माता-पिता का देहान्त हो गया है । घरकी सारी सम्पदा तो मैंने
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy