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________________ नैष्कर्म्यसिद्धिः और यह क्रिया, कारण एवं फलरूप मिथ्याभास केवल मोहसे ही उत्पन्न होने के कारण परमार्थ वस्तुको लेशमात्र भी स्पर्श नहीं कर सकता । द्वैत प्रपञ्चके न होनेपर भी मिथ्याभिनिवेशसे ही यह लोक 'मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ, इस प्रकार अपने आपको ऐसे वञ्चित कर रहा है। जैसे कि मनोरथसे कल्पित सोमशर्मा पुत्रका कल्पित पिता ( कोई मनुष्य ) ॥ ५१ ॥ वस्तुयाथात्म्यानवबोधपटलावनद्धाक्षः सन् । सुभ्रः सुनासा सुमुखी सुनेत्रा चारुहासिनी । कल्पनामात्र सम्मोहाद्रामेत्यालिङ्गतेऽशुचिम् ॥ ५२ ॥ वस्तुके यथार्थं स्वरूपके अज्ञानरूप अन्धकारसे याच्छादित नेत्र होकर - कल्पनामात्र से बावला ( पागल ) होता हुया यह पुरुष अत्यन्त पवित्र स्त्रीशरीरको सुन्दर भौंह, सुन्दरनासिका, सुमनोहरमुख, सुन्दर नेत्र और मनोहर हास्यवाली समझकर उससे आलिङ्गन करता है ॥ ५२ ॥ सर्वस्याऽनर्थजातस्य जिहासितस्य मूलमहङ्कार एव तस्याऽऽत्मानात्मोपरागात । न तु परमार्थत आत्मनोऽविद्यया तत्कार्येण वा सम्बन्धोऽभूदस्ति भविष्यति वा । तस्याऽपरिलुप्तदृष्टिस्वाभाव्यात् । सर्वथा त्यागने योग्य इस सारे अनर्थसमूहका मूल अहङ्कार ही है । क्योंकि उसका और अनात्मा दोनोंके साथ सम्बन्ध है । परन्तु वास्तव में तो ग्रात्माका सम्बन्ध ६२ * कोई अत्यन्त दरिद्र ह्वाशी ब्रह्मचारी भिक्षा माँगता हुआ किसी दुर्भिक्षके समय एकपात्र में सत्तू की धूलि लेकर किसी पर्वतमें वृक्षकी छाया में सोता हुया मनोरथ करने लगा कि मैं इस सत्तूसे कई गौ खरीदकर उन्हें खूब परिपुष्ट करूँगा । फिर वे २३ वर्ष में कई बछड़े उत्पन्न करेंगी। तब मैं उन वृपभोंसे खूब हल जीतकर खेत में बहुतसा अन्न पैदाकर धान्यसे बहुत सम्पन्न हो जाऊँगा । फिर बहुतसे दास-दासियांस युक्त एक अतीव सुन्दर महल बनाऊँगा । उसे देखकर फिर कोई योग्य व्यक्ति अपनी योग्य कन्याका मेरे साथ ब्याह कर देगा । तब मैं यथायोग्य गृहस्थ सम्बन्धी उत्तमोत्तम सुखोंका अनुभव करते हुए वंशका विस्तार करनेवाला पुत्र उत्पन्न करूँगा- -उसका नाम रखूँगा – 'सोमशर्मा' | पीछे कुटुम्ब सौख्यकी अनुभव वेलामें कार्यवश रोते हुए बच्चेको छोड़कर अपना कार्य करनेवाली अपनी स्त्रीको मैं पुत्रनिमित्तक कोपावेश में श्राकर खूब पीहूँगा ।" ऐसा सोचते हुए उस ब्रह्मचारीने कोपावेशमें आकर ज्यों ही अपना हाथ जोरसे उस मृण्मय भिक्षापात्र में मारा, त्योंही उस भिक्षापात्र के दो टुकड़े हो गये और सत्तू सब मट्टीमें मिल गया। तब वह पीछे हाय, मैं नष्ट हो गया । श्ररे, अत्र क्या करूँ ? हाय, मेरा भाग्य बड़ा मन्द है ? ऐसा कहता हुआ खूब पश्चात्ताप करने लगा ।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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