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________________ भाषानुवादसहिता सन्तु काममनात्मधर्मा ममत्वादयोऽप्युक्तन्यायबलात्,' अनात्मतयैव च तेषु व्यवहारात् । अहंरूपस्य तु प्रत्यगात्मसम्बन्धितयैव' प्रसिद्धः, अहं ब्रह्मास्मीति श्रुतेश्चानात्मधर्मत्वमयुक्त मिति चेत्, तन्न । __शङ्का-अस्तु, ममता, प्रयत्न, इच्छा अादि धर्म उक्त युक्तियों के बलसे चाहे अनात्माके धर्म सिद्ध हो जाएँ। क्योंकि उनमें व्यवहार भी अनात्माके समान ही होता है। परन्तु अहङ्कार तो आत्मरूपसे ही प्रसिद्व है और 'अहं ब्रह्मास्मि' इस श्रुतिमें भी 'अहम्' इस शब्दसे प्रात्माका ही ग्रहण प्रतीत होता है। इसलिए अहंकारको अनात्मा कहना अयुक्त है । समाधान अहंधर्मस्त्वभिन्नश्चेदहंब्रह्मेति वाक्यतः । गौरोऽहमिन्यनैकान्तो वाक्यं तद्वयपनेत तत् ॥ २८ ॥ ___ यदि 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) इस वाक्यसे अहंकार और ब्रह्मका अभेद बोधित होता है तो मैं गौर ( गोरा ) हूँ' इस वाक्यसे भी गौरवर्ण के साथ अात्माका अभेद हो जायगा ? क्योंकि 'मैं गौर (गोरा ) हूँ' यह वाक्य भी लोकमें प्रयुक्त होता है। परन्तु गौर वर्णका आत्माके साथ अभेद तो नहीं होता है । इसलिए 'मैं ब्रह्म हूँ' इससे भी अहङ्कार और ब्रह्मका अभेद नहीं बोधित होता, किन्तु अहङ्कारका बोध होता है । अर्थात् 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इस वाक्यका यह अर्थ होता है कि 'मैं अहङ्कार नहीं, किन्तु ब्रह्म हूँ॥२८॥ कथं वाक्यं तव्यपनेर तदिति उच्यते 'अहं ब्रह्म.ऽस्मि' यह वाक्य किस प्रकार अहङ्कारका बाधक होता है, यह बत. लाते हैं योऽयं स्थाणुः पुमानेषः पुंधिया स्थाणुधीरिव । ब्रह्माऽस्मीतिधियाऽशेषामहं बुद्धिं निवर्तये ।। २९ ॥ जैसे पुरुषमें भ्रमसे उत्पन्न हुई स्थाणु बुद्धि 'यह पुरुष है' इस प्रकारके ज्ञानसे बाधित हो जाती है । वैसे ही 'मैं अहङ्कार हूँ' इस बुद्धिको 'मैं अहङ्कार नहीं, किन्तु ब्रह्म हूँ' इस बुद्धसे निवृत्त करना चाहिए || २६ || ___ अहंपरिच्छेदव्यावृत्तौ न किञ्चिदव्यावृतं द्वैतजातमवशिष्यते, द्वितीयसम्बन्धस्य तन्मूलत्वादत आह-- १-यथोक्तन्यायबलात्, भी पाठ है । २-प्रत्यगात्मतयैव, भी पाठ है। ३-निवारयेत् । ऐसा तथा 'अशेषा ह्यहबुद्विवियते, भी पाठ है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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