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________________ नैष्कर्म्यसिद्धिः प्रत्यत्र के विषय शरीर में विरोध बुद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि वह त्वं पदका लक्ष्य ही I -- नहीं है । इसलिए उसका तत्पदके साथ अभेद नहीं बनता तो न बने, उससे कोई विरोध नहीं । तथा 'मैं' खसे देखता हूँ, कानसे सुनता हूँ, इस प्रकार जिन इन्द्रियों में यह विषय ग्रहण करनेके साधन मात्र हैं, ऐसा अनुभव हो रहा है, उनसे "मैं" इस ज्ञानके विषय होनेपर भी कोई विरोध नहीं। क्योंकि उन इन्द्रियोंके साथ 'तत्' पदार्थ की एकता नहीं मानते हैं । इसी प्रकार शुद्ध 'त्वग्' पद लक्ष्य-ग्रामाका 'तत्' पर लक्ष्य – ब्रह्म के साथ एकत्व होने में कोई आपत्ति नहीं है । और सुखदुःखविशिष्ट श्रन्तःकरणसे युक्त जीवके साथ तत्पदलक्ष्य ब्रह्मका एकत्व नहीं माना गया है । इस प्रकार 'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्यका तात्पर्य जाननेवाले पुरुषको 'मैं' इस प्रत्ययसे ग्राह्य शरीर, इस प्रत्यय के विषय न होनेवाले इन्द्रियादि, प्रत्यगात्मा और सुखदुःखादि विष्टि अन्तःकरण, इन चारों पदार्थोंमें विरोव बुद्धि नहीं होती || ५ || नाsविरक्तस्य संसाराभिविवत्सा ततो भवेत । ४८ न चाऽनिवृत्ततृष्णस्य पुरुषस्य मुमुक्षुता ।। ६ ।। जो पुरुष संसारसे विरक्त नहीं है, उसे संसारसे निवृत्त होनेकी इच्छा नहीं होती और जिसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई है, उसको मोक्ष की इच्छा भी नहीं होती || ६ ॥ [ यहाँपर यह शङ्का होती है कि 'यदि वाक्य अपना अर्थ प्रतिपादन करने के लिए दूसरे प्रमाण अपेक्षा नहीं करता और प्रमाणान्तरका विरोध भी नहीं है, तो फिर वाक्यका श्रवण करते ही सभीको क्यों नहीं ज्ञान उत्पन्न होता ? इसका उत्तर 'जो ब्रह्मज्ञान के साधन वैराग्य यादिसे युक्त हैं, उन्हीं को ज्ञान उत्पन्न होता है' इस प्रकार से मि श्लोकसे देते हैं । ] न चामुतोरस्तीह गुरुपादोपसर्पणम् । न विना गुरुसम्बन्धं वाक्यस्य श्रवणं भवेत् ॥ ७ ॥ जो मुमुक्षु नहीं है, वह पुरुष गुरुचरणोंके समीप नहीं पहुँचता और बिना गुरुचरणोंके समीप पहुँचे वेदान्त वाक्यका श्रवण नहीं होता है ॥ ७ ॥ तथा पदपदार्थों च न स्तो वाक्यमृते क्वचित् । अन्वयव्यतिरेकौ च तावृते स्तां किमाश्रयौ ॥ ८ ॥ और वाक्यके बिना पद-पदार्थ कहीं नहीं रह सकते हैं एवं पदपदार्थों के बिना अन्वय और व्यतिरेक भी किसके सहारे रह सकेंगे ॥ ८ ॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विना वाक्यार्थबोधनम् | न स्यात्तेन १ – नाशो नाज्ञानस्योपजायते, ऐसा तथा 'ज्ञानप्रहाणं नोपपद्यते, भी पाठ है । विना ध्वंसो' नाऽज्ञानस्योपपद्यते ॥ ९ ॥
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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