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________________ भाषानुवादसहिता किसीको वाक्य के श्रवण मात्र से ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है । इन कई प्रकारसे ज्ञान करनेबालोंमेंसे स्वयमेत्र अनात्मवस्तुकी निवृत्तिसे जिनको ज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसे विराट् और वाक्य के स्मरण से ज्ञान प्राप्त करनेवाले भृगु एवं वाक्यश्रवणमात्रसे ज्ञान प्राप्त करने - वाला पिशाच - इन तीनोंकी सिद्धि यादृच्छिक अर्थात् अनिश्चित है । परन्तु गुरुने जिसको वाक्यार्थका स्मरण कराया है ऐसे श्वेतकेतुकी सिद्धि निश्चित है । ( इसलिए ब्रह्मज्ञान उत्पन्न करनेमें 'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्य निश्चित कारण नहीं है, किन्तु मुने हुए वाक्यका स्मरण कराया जाना ही निश्चित कारण है | ) || ३ || नाsयमनैकान्तिक हेतुर्यतः सर्वोऽयं महिमा ज्ञेयो वाक्यस्यैव यथोदितः । वाक्यार्थं न ते वाक्यात्कचिज्जानाति तचतः ॥ ४ ॥ --- ४७ [ इस शङ्का समाधान के लिए सिद्धान्तका प्रतिपादन करते हैं- ] ब्रह्मज्ञानोत्पत्तिमें वेदान्तवाक्य अनिश्चित हेतु नहीं हैं, क्योंकि पूर्वोक्त यह सत्र माहात्म्य वाक्यका ही जानना चाहिए। इसमें कारण यह है कि कोई भी वाक्य के बिना वाक्यार्थको यथार्थरूपसे नहीं जान सकता । ॥ ४ ॥ वाक्यं च प्रतिपादनाय प्रवृत्तं सत्प्रतिपादयत्येव, सर्वप्रमाणानामप्येवंवृत्तत्वात् । १ और यह भी नहीं कहा जा सकता कि अनुमोदक कोई दूसरा प्रमाण नहीं है, इस लिए वाक्य स्वार्थका निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि अपने विषयोंका अवबोधन कराके लिए प्रवृत्त हुए प्रमाण विना अनुमोदक प्रमाणके भी अपने विषयोंका निश्चय कराते हुए देखे जाते हैं । [ और यदि यह प्रश्न किया जाय कि हम "अनुमोदक प्रमाणान्तर नहीं है इस ' लिए वाक्य प्रतिपादन नहीं कर सकता" ऐसा नहीं कहते, किन्तु जीत्र ब्रह्मकी एकतारूप अर्थ प्रमाणान्तरों से विरुद्ध है । इसलिए वाक्य प्रमाण नहीं बन सकते ? तो इस शङ्काका परिहार करते हैं--] नाऽहंग्राह्ये न तद्धीने न प्रत्यङ् नाऽपि दु:खिनि । विरोधः सदसीत्यस्माद् वाक्याभिज्ञस्य जायते ।। ५ ॥ प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके जो विषय हैं उनके साथ तो ब्रह्मका भेदश्रुति प्रतिपादन नहीं करती, तत्र विरोध कहाँसे उपस्थित होगा ? जैसे—मैं मनुष्य हूँ, इस प्रकार १ - एवं प्रवृत्तत्वात् भी पाठ है ।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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