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________________ नैष्कयसिद्धिः नित्यनैमित्तिके कर्मणी कुर्यात्काम्चप्रतिषिद्धे च वर्जयेद् आरब्धले चोपभोगेन क्षपयेदिति । अानन्त्याच्च । न चोपचितानां कर्मणामियत्ताऽस्ति, संसारस्याऽनादित्वात् । न च काम्यैः प्रतिषिद्वैर्वा तेषां निवृत्तिरस्ति । शुद्धयशुद्धिसाम्ये सत्यविरोधादित्यत आह___यह जो काम्य और प्रतिषिद्ध कर्मके त्यागकी प्रतिज्ञा की जाती है, उसका पालन नहीं हो सकता, क्योंकि, जो कर्म हो चुके उनकी निवृत्ति दो ही प्रकारसे की जा सकती है। (१) जिन शुभाशुभ कर्मोंने फल देना प्रारम्भ कर दिया है, उनकी निवृत्ति उपभोगसे और (२) जिन्होंने फल देना प्रारम्भ नहीं किया है, ऐसे अशुभ कर्मोकी (निवृत्ति) प्रायश्चित्तसे । और हाँ, एक तीसरा प्रकार भी- मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ' इस प्रकार का ज्ञान भी किए हुए कर्मोकी निवृत्तिका कारण है। परन्तु उसको तो अात्मज्ञानको न माननेवाले श्राप ( कर्मवादी लोग ) मानते ही नहीं हो। उनमें से जिनका फल भोगा नहीं गया है और जिन्होंने फल देना प्रारम्भ नहीं किया है, उनका नाश तो बिना भोगे ईश्वर अथवा और कोई भी नहीं कर सकता । और जिन्होंने फल देना प्रारम्भ कर दिया है उनका भी नाश नहीं हो सकता, क्योंकि किए हुए कर्मीका नाश मानने में तुम्हारेकर्मवादियोंके-मतमें दोष आएगा। और जो कर्म अभी किया नहीं गया है; किन्तु जिसके करनेकी इच्छामात्र की गई है, उस कर्मका त्याग हो सकता है। क्योंकि अपनी प्रवृत्तिके रोक लेनेमें कर्ताको स्वतन्त्रता है। परन्तु जब कर्म कर लिया तव तो उसकी निवृत्ति होना सर्वथा असम्भव है। इसलिए आपकी प्रतिज्ञाका पालन होना कठिन है, कठिन क्या सर्वथा अशक्य है। कोई भी यह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता कि मैं जब तक जीऊँगा तब तक काम्य या प्रतिषिद्ध कर्म नहीं करूँगा । क्योंकि बड़े-बड़े सुनिपुण-कर्तव्यपरायणोंसे भी सूक्ष्म अपराध हो जाते हैं और इसमें कोई प्रमाण भी नहीं मिल सकता। ऐसा कोई मी शास्त्रका प्रमाण नहीं है जो यह कहता हो कि “मोक्षकी इच्छावाला नित्य नैमित्तिक कर्म करे, काम्य और निषिद्ध कर्मको छोड़ दे और जिन्होंने फल देना प्रारम्भ कर दिया है, उन्हें भोग कर समाप्त कर दे।” कर्म अनन्त हैं। संसार अनादि होनेके कारण किये हुए, कर्मोका कोई अन्त नहीं है और न काम्य एवं प्रतिषिद्ध कर्मोंसे उनकी निवृत्ति हो सकती है। क्योंकि दोनोंमें शुद्धि तथा अशुद्धि बराबर होनेके कारण विरोध नहीं है। यही बात अग्रिम श्लोकसे कहते हैं न कृत्स्नकाम्यसन्त्यागोऽनन्तत्वात्कर्तुमिष्यते । . निषिद्धकर्मणश्चेत्तु व्यतीतानन्तजन्मसु ॥८१॥ जन्म-जन्मान्तरोंमें अनुष्ठित सम्पूर्ण काम्य अथवा निषिद्ध कर्मोंका त्याग उनके अनन्त होनेके कारण सम्भव नहीं हो सकता ॥ ८१ ॥
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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