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________________ ३४ नैष्कर्म्यसिद्धिः बुद्धिः पदार्थ मालिङ्गते । एवं धनभ्युपगमे भिन्नाभिन्नपदार्थयोरलौकिकन्वं प्रसज्येत । अथ निष्प्रमाणकमप्याश्रीयते, तदप्युभयपक्षाभ्युपगमादपक्षे दु:ख ब्रह्म स्यादित्यत श्राह - शङ्का - अच्छा, यदि अभेदपक्षमें दोष आते हैं, तो ब्रह्मको जीवसे भिन्न और अभिन्न, दोनों ही प्रकार से मान लिया जाय ? ऐसा मान लेनेसे ज्ञान और कर्म - दोनों की ही व्यवस्था हो जाएगी, क्योंकि भेद-बुद्धिसे कर्मानुष्ठान और अभेदबुद्धिसे 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकारका ज्ञानभीं सङ्गत हो जाएगा ? समाधान- यह तो पक्ष ही नहीं बन सकता, क्योंकि यह उससे भिन्न है, इस प्रकारकी बुद्धि एक ही पदार्थ में, यह उससे भिन्न नहीं है, इस प्रकारकी बुद्धिका निराकरण किए बिना नहीं उत्पन्न हो सकती । यदि यह न माना जाय तो ये दोनों पदार्थ लोकमें अप्रसिद्ध हो जाएँगे । यदि प्रमाणसे रहित होनेपर भी भेदाभेदपक्षका अवलम्बन करते ही हो, तो भेद पक्ष में ब्रह्म के दुःखी होने का दोष आएगा। इसी बात को कहते हैंभिन्नाभिन्नं विशेषैवेद्दुःखि स्याद् ब्रह्म ते ध्रुवम् । } शेषदुःखिता चेत्स्यादहो प्रज्ञाऽऽत्मवादिनाम् ॥ ७८ ॥ सामान्य और विशेषरूपसे वर्तमान सब वस्तुयोंके साथ यदि ब्रह्मको अभिन्न मानो तो सम्पूर्ण वस्तु दुःखमय हैं, इसलिए निश्चय ही ब्रह्म दुःखमय हो जाएगा। क्योंकि सम्पूर्ण जीवोंका ब्रह्मके साथ भेद हो जाएगा इससे जीवोंका सम्पूर्ण दुःख भी ब्रह्म में आ जाएगा । ऐसा माननेसे तो जो ज्ञानी लोग ब्रह्मको प्राप्त होंगे वे दुःखमय ब्रह्मको प्राप्त होने के कारण संसारियों से भी निकृष्ट हो जाएँगे । यदि ऐसा ही आपको स्वीकार है। तो बलिहारी है आपको बुद्धिकी, जो कि महान् दुःखको पुरुषार्थ समझ रही है ! ॥ ७८ ॥ तस्मात्सम्यगेवाऽभिहितं न ज्ञानकर्मणोः समुच्चय इत्युपसंहियते इसलिए यह बहुत ठीक कहा गया है कि - ( मुक्तिप्रासिकेलिए ) ज्ञान और कर्मका समुच्चय नहीं हो सकता । इसका उपसंहार ( अग्रिम - श्लोक से ) करते हैं तमोऽङ्गत्वं यथा भानोरग्नेः शीताङ्गता यथा । वारिणश्रोष्णता यद्वज्ज्ञानस्यैवं क्रियाङ्गता ।। ७९ ॥ जिस प्रकार सूर्यको अन्धकारका श्रमिको शीतका और जलको उष्णताका अङ्ग मानना सर्वथा अज्ञपन है, इसी प्रकार ज्ञानको कर्मका अङ्ग मानना भी सर्वथा ज्ञपन है । अर्थात् जैसे सूर्य, अग्नि और जल अन्धकार, शीत और उष्णताके नाशक होनेके कारण उनके श्रृङ्ग नहीं हो सकते, वैसे ही ज्ञान भी कर्मका नाशक होनेके कारण उसका नहीं हो सकता ॥ ७६ ॥
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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