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________________ भाषानुवादसहिता ३१ यदि अात्मरूप ही है, तब तो उसकी अप्राप्ति अज्ञानसे ही माननी पड़ेगी और यदि ब्रह्म जीवात्मासे भिन्न ही है, तो वास्तवमें अनात्मा होनेसे सर्वदा उसकी अप्राप्ति ही रहेगी; फिर वहाँ ज्ञान या कर्मसे क्या प्रयोजन है ? तत्र यदि वास्तवेनैव वृत्तेन ब्रह्मप्राप्तमात्मस्वाभाव्यात्केवलमासुरमोहपिधानमात्रमेवाऽनाप्तिनिमित्तं तस्मिन्पक्षे यदि ब्रह्म अात्मरूप होने के कारण वास्तवमें प्राप्त ही है, तब तो केवल अज्ञानका, जो अासुर मोह कहलाता है, आवरणमात्र ही ब्रह्मकी अप्राप्तिमें कारण होगा। सो उस पक्षमें मोहापिधानभङ्गाय नैव कर्माणि कारणम् । ज्ञानेनैव फलवाप्तेस्तत्र कर्म निरर्थकम् ॥ ७० ॥ मोहावरणका नाश करनेके लिए कर्म कारण नहीं बन सकता, क्योंकि ज्ञानसे ही उसकी (मोहकी निवृत्ति) हो जायगी। वहाँ कर्म निरर्थक ही होगा ॥ ७० ॥ अनात्मरूपके तु ब्रह्मणि न कर्म साधनभावं प्रतिपद्यते नाऽपि ज्ञानं कर्मसमुच्चितमसमुचितं वा, यस्मादन्यस्य स्वत एव साधकस्य ब्रह्मणोऽप्यन्यत्वं स्वत एव सिद्धम् । तत्रैवम् और यदि ब्रह्म आत्मासे भिन्न है तो भी ( मोहकी निवृत्तिमें ) कर्म साधन नहीं हो सकता और न कमसहित अथवा केवल ज्ञान ही साधन हो सकता है, क्योंकि ब्रह्मप्राप्ति के लिए साधनोंका अनुष्ठान करनेवाले पुरुषको-ब्रह्मसे स्वत एव भिन्न होनेके कारण-ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहो कि जीवका ब्रह्म के साथ है तो वास्तवमें भेद ही, परन्तु उस भेदको ही नष्ट करनेके लिए प्रयत्न करते हैं ? [ तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि-] अन्यस्याऽन्यात्मताप्राप्तौ न क्वचिद्धेतुसम्भवः । . .. तस्मिन्सत्यपि नाऽनष्टः परात्मानं प्रपद्यते ॥ ७१ ॥ अन्यका अन्यके साथ अभेद कर देनेके लिए कहीं भी कोई हेतु नहीं देखा गया है। यदि अन्यरूप होनेवाला विद्यमान रहे तो वह विरुद्ध होनेके कारण अन्यका रूप नहीं बन सकता। यदि वह नष्ट हो जाय तो अन्यरूप कौन होगा ? क्योंकि वह तो रहा हो नहीं जो दूसरेका रूप बन जाय ।। ७१ ॥ अपरस्मिंस्तु पक्षे न विधिःपरमात्मानुकूलेन ज्ञानाभ्यासेन दुःखिनः । द्वैतिनोऽपि विमुच्येरन् न परात्मविरोधिना ॥ ७२ ॥
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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