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________________ भाषानुवादसहिता १६५. फिर रागद्वेषादि निमित्तसे ही माननी पड़ेगी । तब तो यथेच्छाचार करनेपर भी तवज्ञको कोई दोष नहीं प्राप्त होगा ?" तो इस शंकाके निराकरण के लिए कहते हैं— द्वैतात्मा यथार्थ स्वरूपको जान लेनेपर भी यदि यथेष्टाचरण होने लगे, तो फिर शुचि पदार्थका सेवन करनेमें तत्त्वज्ञानी और कुत्ते एक सरीखे हो जाएँगे । इसलिए ऐसा नहीं माना जाता। संस्कारवशसे भी तत्त्वज्ञानीकी प्रवृत्ति मनुष्यत्व जात्युचित कर्मों में नहीं होती । किन्तु वर्णाश्रमधर्मो के संस्कारवश प्रातिभासिक व श्रमोचित ही होती है ! इसलिए ज्ञानोका यथेष्टाचरण कदापि नहीं हो सकता ? ॥ ६२ ॥ कस्मान्न भवति ? यस्मात् - अधर्माज्जायते ज्ञानं यथेष्टाचरणं ततः । धर्मकार्ये कथं तत्स्याद् यत्र धर्मोऽपि नेष्यते ॥ ६३ ॥ शङ्का - वर्णाश्रमाभिमान तो आगन्तुक है, जात्यभिमान स्वाभाविक है । इसलिए संस्कार के बलसे मनुष्यत्व जात्युचित ही प्रवृत्ति क्यों नहीं होती ? समाधान - इसलिए कि जन्म जन्मान्तर में किये हुए अधर्मसे ( पापांसे ) अज्ञान अर्थात् श्रभक्ष्य भक्षणादि में कर्तव्यताबुद्धि होती है, अज्ञानसे फिर यथेष्टाचरण होता है | तत्वज्ञान तो अनेक जन्मोंमें किए सुकृतोंसे होता है, 'धमसे ही सुख और ज्ञान होता है । तो फिर जिसके ( ज्ञान के ) होनेसे कामादि दोषोंका अत्यन्त उच्छेद हो जाने के कारण धर्माचरण में भी प्रवृत्ति नहीं होती । भला, उस ज्ञानके उदय होनेपर यथेष्टाचरण कैसे हो सकेगा ? ( अर्थात् तत्त्ववेत्ताके तो अतीत अनेक जन्मों में भी यथेष्टाचरणकी 1 वार्ता तक नहीं है । श्रतएव उसके संस्कार भी नहीं हैं, इसलिए उसका यथेष्टाचरण नहीं हो सकता ! ) ॥ ६३ ॥ प्रत्याचक्षाण आहाऽतो यथेष्टाचरणं हरिः । यस्य सर्वे समारम्भाः प्रकाशं चेति सर्वक' ॥ ६४ ॥ इसीलिए भगवान्ने गीता में ज्ञानीके यथेष्टाचरणका खण्डन करनेके लिए ज्ञानीका लक्षण ऐसा बतलाया है कि - "जिसके सब कार्य काम संकल्पसे वर्जित होते हैं, " ," " जो सत्व, रज और तमोगुण के कार्यों - प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह-में श्रासक्ति या द्व ेष नहीं करता वह गुणातीत कहाता है । " ॥ ६४ ॥ तिष्ठतु तावत् सर्वप्रवृत्तिबीजघस्मरं ज्ञानं, मुमुक्ष्ववस्थायामपि न सम्भवति यथेष्टाचरणम् । तदाह १ -- सत्यकू, ऐसा पाठ भी है ।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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