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________________ भाषानुवादसहिता १६१ होनेसे देखता हुया भी द्वितीय वस्तुको नहीं देखता। वैसे ही स्वप्न और जाग्रत् अवस्थामें भी द्वैतको नहीं देखता ? ॥ ४८ ॥ एवं ज्ञानवतो नास्ति ममाऽहंमतिसंश्रयः। भास्वत्प्रदीपहस्तस्य ह्यन्धकार इवाऽग्रतः ।। ४९ ॥ इस प्रकार प्रात्मस्वरूपका ज्ञान जिस पुरुषको हो गया है उसको प्रकाशमान दीपकको हाथमें रखनेवाले पुरुषके सामने जैसे अन्धकार नहीं रह सकता। वैसे ही, अहम् मम, ऐसी बुद्धि कभी नहीं होती ॥ ४६ ॥ तत्र दृष्टान्तःआ प्रबोधाद्यथाऽसिद्धिद्वैतादन्यस्य वस्तुनः । बोधादेवमसिद्धत्वं बुद्धयादेः प्रत्यगात्मनः ॥ ५० ॥ - इस विषयमें अन्य दृष्टान्त देते हैं-- जैसे जब तक बोध नहीं होता, तभी तक द्वैतसे भिन्न अर्थात् अद्वितीय वस्तुकी असिद्धि है। वैसे ही ज्ञान होनेके बाद प्रत्यगात्मा के साथ बुद्धयादिका सम्बन्ध भी नहीं होता ॥ ५० ॥ स एष विद्वान् हानोपादानशून्यमात्मानमात्मनि पश्यन्सर्वमेवाऽनुजानाति सर्वमेव निषेधति । भेदात्मलाभोऽनुज्ञा स्यानिषेधोऽतत्स्वभावतः ॥५१॥ । पूर्वोक्त तत्त्वज्ञानी पुरुष जो हेय भी नहीं है और उपादेय भी नहीं है ऐसे आत्माको अपना स्वरूप समझता हुआ द्वैतप्रपञ्चकी अनुज्ञा भी करता है और समस्त वस्तु का निषेध भी करता है। व्यवहार दृष्टि से द्वैतप्रपञ्चका स्वरूपलाभ ही अनुज्ञा कहाती है। तत्त्वदृष्टिसे उस प्रपञ्चका न होना ही निषेध कहाता है ॥ ५१ ॥. सर्वस्योक्तत्वादुपसंहारःपरमार्थात्मनिष्ठं यत्सर्ववेदान्तनिश्चितम् । 'तमोपनुद्धियां ज्ञानं तदेतत्कथितं मया ॥ ५२ ॥ जो कुछ कहना था, वह सब कहा गया। इसलिए अब उपसंहार करते हैं जो समस्त वेदान्तोंसे निश्चितरूपसे उत्पन्न हुश्रा अन्त:करण के अन्धकार को निवृत्त करने वाला प्राधमाका तत्त्वज्ञान है, वह सब इस प्रकरण में मैंने कह दिया है, अर्थात् इससे अतिरिक्त कुछ जीवोंके लिए ज्ञातव्य या कथनीय अवशिष्ट नहीं है ॥५२॥ १-तमोपनुद्धि यज्ज्ञानं, पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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